
पाकिस्तान को वैश्विक मंचों पर आतंकवाद को लेकर बेनकाब करने के लिए भारत सरकार ने ‘पाक बेनकाब’ नाम से एक नया कूटनीतिक मिशन शुरू किया है। इसके तहत सात सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल विभिन्न देशों का दौरा करेंगे। लेकिन, इस बड़ी रणनीतिक पहल से पहले ही विवाद खड़ा हो गया है—और इसकी वजह है तृणमूल कांग्रेस (TMC) का प्रतिनिधिमंडल से अलग होना।
TMC ने खींची लक्ष्मण रेखा:
टीएमसी ने केंद्र सरकार को स्पष्ट कर दिया कि यूसुफ पठान या कोई अन्य TMC सांसद इस मिशन का हिस्सा नहीं बनेगा, जब तक पार्टी खुद तय न करे कि कौन जाएगा। पार्टी का तर्क है कि “प्रतिनिधिमंडल में कौन जाएगा, यह पार्टी का अधिकार क्षेत्र है, न कि केंद्र का।”
क्या है मिशन ‘पाक बेनकाब’?
‘ऑपरेशन सिंदूर’ के बाद भारत अब विश्वस्तर पर पाकिस्तान को आतंक के मुद्दे पर घेरने के लिए सात प्रतिनिधिमंडल भेज रहा है। इनका मकसद है — भारत की आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रीय सहमति और जीरो टॉलरेंस की नीति को दुनिया के सामने रखना।
चार प्रतिनिधिमंडलों का नेतृत्व सत्तारूढ़ दलों से, और तीन का विपक्षी दलों से नेता करेंगे।
इनमें शामिल हैं:
बीजेपी – रविशंकर प्रसाद, बैजयंत पांडा
शिवसेना – श्रीकांत शिंदे
जेडीयू – संजय झा
कांग्रेस – शशि थरूर
द्रमुक – कनिमोई
राकांपा (एसपी) – सुप्रिया सुले
TMC का तर्क:
TMC के राष्ट्रीय महासचिव अभिषेक बनर्जी ने कहा,
“हम आतंकवाद के खिलाफ हर पहल का समर्थन करते हैं। लेकिन यह तय करना कि किसे भेजा जाएगा, हमारा अधिकार है। पार्टी खुद तय करेगी कि कौन प्रतिनिधिमंडल में जाएगा। यह अधिकार केंद्र सरकार को नहीं दिया जा सकता।”
राजनीतिक संकेत क्या हैं?
TMC की यह प्रतिक्रिया सिर्फ नाम चयन का मामला नहीं है, बल्कि राजनीतिक असहमति और संविधान के संघीय ढांचे पर जोर देने की भी कोशिश है। यह मामला उस समय और भी दिलचस्प हो गया जब कांग्रेस नेता शशि थरूर ने खुद प्रतिनिधिमंडल में शामिल होने की सहमति दे दी, भले ही पार्टी ने औपचारिक नामांकन न किया हो।
TMC के रुख से केंद्र और विपक्ष के बीच सहयोग और असहमति की सीमा रेखा साफ होती है। सवाल ये है कि जब उद्देश्य आतंकवाद के खिलाफ राष्ट्रीय एकता का है, तो क्या नाम तय करने जैसे मुद्दों पर राजनीतिक अहम को आगे रखना वाजिब है?