“एक वक़्त था जब शराब के जाम में मोहब्बत डूबती थी… और इज्ज़त को बचाने के लिए तवायफ़ी चालें अपनाई जाती थीं।” ‘साहिब बीबी और ग़ुलाम’ सिर्फ एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा का तहज़ीबी वसीयतनामा है। अबरार अलवी के निर्देशन में, गुरु दत्त की छाया, मीना कुमारी की पीड़ा और बंगाल की लुप्त होती ज़मींदारी संस्कृति का ऐसा सम्मिलन हुआ, जो आज भी एक अद्वितीय मिसाल है। यह फ़िल्म किसी आलीशान हवेली में बज रहे तबले की आवाज़ नहीं, बल्कि उसके खंडहरों में गूंजती तन्हाई की चीख है। मीना…
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रेट्रो रिव्यू-राज कुमार ने क्लास ली, डैनी ने प्लॉट किया – ये ‘बुलन्दी’ है बॉस!
साल था 1980। जनता टीवी के बजाय सिनेमा हॉल में “क्लास” लेती थी और रंजीत सिंह लोबो जैसे लोग बच्चों को पढ़ाई से ज़्यादा साज़िशें सिखाते थे। निर्देशक इस्माईल श्रॉफ की ‘बुलन्दी’ ऐसी ही क्लासिक कहानी है जिसमें राज कुमार का संवाद और डैनी का ड्यूल रोल — दोनों ही ‘सिलेबस’ से बाहर हैं। प्लॉट: गुरु और गुंडों का गहन गठबंधन प्रोफेसर सतीश खुराना (राज कुमार) एक आदर्शवादी शिक्षक हैं जिन्हें पढ़ाना है मनजीत सिंह लोबो (डैनी डेन्जोंगपा) को, जो इतने बिगड़े हुए हैं कि Netflix भी उसे कास्ट करने…
Read Moreरेट्रो रिव्यू फौलाद: दारा सिंह और मुमताज ने 60s के पर्दे पर आग लगा दी
फौलाद की कहानी सीधे-साधे प्रेम से नहीं, बल्कि शाही दरबार की भविष्यवाणी, जातिगत पृष्ठभूमि, और सत्ता की भूख से शुरू होती है। एक महाराजा जब यह सुनता है कि उसकी बेटी किसी “नीच जाति” के युवक से शादी करेगी और उसकी गद्दी खतरे में पड़ जाएगी, तो वह सारे नवजात निम्न जाति के लड़कों को मरवाने का आदेश देता है।“इतिहास गवाह है – जब नेताओं को अपनी कुर्सी डगमगाती दिखे, तो उनका पहला निशाना आम जनता ही होती है – फिर चाहे वो फिल्म हो या संसद।” अमर बना फौलाद…
Read Moreआया सावन झूम के (1969) रेट्रो रिव्यू: धर्मेन्द्र फंस गए इमोशनल मडस्लाइड में
बारिश, मंदिर, बेबी ड्रॉप-ऑफ और धर्म संकट – एकदम 60s क्लासिक सेटअप।निरूपा रॉय यहां भी ट्रेजेडी का पैकेज लेकर आती हैं – नौकरानी बनी हैं, गलती से मालिक को मार बैठती हैं और फिर बेटा छोड़ देती हैं। इससे ज़्यादा बैकस्टोरी अगर Netflix पे होता, तो 3 सीज़न में भी खत्म न हो! धर्मेन्द्र vs भावनाएं: जयशंकर उर्फ़ जय (धर्मेन्द्र) बिजनेस मैन हैं, मगर दिल से Confusion-प्रेमी। आरती (आशा पारेख) से रोमांस शुरू हुआ ही था कि उन्होंने उसके बाप को अनजाने में गाड़ी से कुचल दिया (जैसे गलती से…
Read Moreआराधना फिल्म रेट्रो रिव्यू: राजेश का सुपरस्टार बूस्टर और किशोर दा की वापसी
1969 की “आराधना” वो फिल्म है जिसने प्यार, त्याग, साज़िश और “मेरे सपनों की रानी” जैसी चाय की चुस्की वाला रोमांस परोसा। शक्ति सामंत की यह फिल्म बस फिल्म नहीं थी — यह राजेश खन्ना के माथे पर टिका सुपरस्टार का तिलक थी। बिहार बुला रहल बा कि कुर्सी?” तेजस्वी के तंज पर चिराग चुप मेरे सपनों की रानी कब आएगी तू? इस गाने ने लोगों को इतना दीवाना किया कि कुछ ने रेलवे टिकट सिर्फ इस सीन को रीक्रिएट करने के लिए खरीदा। राजेश खन्ना कार में, शर्मिला टैगोर…
Read Moreरेट्रो रिव्यू- मेरा नाम जोकर: जब राज कपूर बोले – “दुनिया हंसती है, मैं रोता हूं”
साल था 1970, जब राज कपूर ने तय किया कि अब वो सिर्फ दिल ही नहीं, दर्शकों का धैर्य भी टेस्ट करेंगे। “मेरा नाम जोकर” रिलीज़ हुई – एक 4 घंटे लंबी भावनात्मक जर्नी, जिसमें प्रेम, पीड़ा और पब्लिक की प्यास सब कुछ था… बस पॉपकॉर्न जल्दी खत्म हो गया। जोकर की कहानी या ऑडियंस की अग्निपरीक्षा? राजू जोकर (राज कपूर) की ज़िंदगी तीन हिस्सों में बंटी है, जैसे हर सरकारी स्कीम – स्टूडेंट फेज, सर्कस फेज और ‘अब बस करो भाई’ फेज। टीचर वाला क्रश – सिमी गरेवाल से…
Read Moreहीर राँझा (1970) रेट्रो रिव्यू: शायरी में डूबी मोहब्बत की सबसे दर्दनाक फिल्म
1970 में चेतन आनंद ने जो किया, उसे आज की पीढ़ी “Cinematic Audacity” कहेगी। पूरी फिल्म शायरी में बोलती है! नहीं, मतलब सच में — हर किरदार, हर डायलॉग, हर झगड़ा तक, सबकुछ तुकबंदी में। और इस प्रयोग को नाकाम नहीं, मास्टरपीस कहा गया। अखिलेश केदारनाथ बना बैठे, शंकराचार्य बन बैठे क्या-अब काबा भी बनवायेंगे ? राजकुमार: एक्टर नहीं, चलता-फिरता उर्दू शेर अगर आपको लगता है कि आजकल के हीरो स्टाइलिश हैं, तो ज़रा राजकुमार को देख लीजिए – नज़रों से तलवार चलाते हैं और जुबान से इश्क। उनके डायलॉग…
Read Moreपड़ोसन फिल्म रेट्रो रिव्यू: जब किशोर कुमार ने म्यूजिक से सबको चुप कर दिया
1968 की “पड़ोसन” कोई साधारण रोमांटिक कॉमेडी नहीं थी, बल्कि यह उन लोगों की पवित्र गाथा है जो प्रेम के लिए कुछ भी करने को तैयार थे—यहां तक कि संगीत भी सीख लिया! जी हां, भोलाराम (सुनील दत्त) एक ऐसा प्रेमवीर है जिसे न संगीत आता है, न तमीज़, लेकिन मोहब्बत के नाम पर वो सब सीख जाता है — थिरकना छोड़, थिरकाने का गुर भी! चेहरा चिपचिपा या चमकदार? सावन में स्किन केयर के देसी जुगाड़ जब किशोर कुमार बने गायक और गाइड किशोर कुमार उर्फ “विद्यापति” यानी वो…
Read Moreसंगम रेट्रो रिव्यू: जब प्यार, दोस्ती और विदेश यात्रा तीन घंटे में फिट हो गए
राज कपूर की ‘संगम’ (1964) एक ऐसी फिल्म है जिसमें दोस्ती इतनी पवित्र थी कि अगर WhatsApp होता, तो शायद रणवीर (राज कपूर) का “Seen” भी एक इमोशनल सीन बन जाता।फिल्म में ट्रायंगल लव स्टोरी है, लेकिन प्लॉट इतना फैला हुआ कि आपको लगता है – “ये फिल्म नहीं, इमोशंस की रेलवे लाइन है, जिसमें हर स्टेशन पर आंसू हैं।” IND vs ENG : केएल राहुल के आउट होते ही लड़खड़ाया इंडिया लव लेटर, जो आज भी इंटरनेट स्पीड से तेज़ पहुंचता है! राजेंद्र कुमार का किरदार जब प्यार छुपाता…
Read More‘एक फूल दो माली’ रिव्यू: बलराज साहनी और संजय खान की क्लासिक
1969 में रिलीज़ हुई ‘एक फूल दो माली’ एक ऐसी भावनात्मक फिल्म है जो अब भी दर्शकों के दिलों में जिंदा है। राज खोसला के निर्देशन में बनी इस फिल्म में प्यार, त्याग, मातृत्व और पितृत्व के भावों को बेहद मार्मिक तरीके से पेश किया गया है। मुख्य कलाकारों की अदाकारी बलराज साहनी ने एक संघर्षशील पिता के रूप में दिल को छू लेने वाला परफॉर्मेंस दिया। संजय खान, एक फौजी प्रेमी के रूप में प्रभावशाली लगे, जो हालात से हार नहीं मानता। साधना ने अपने शांत लेकिन दृढ़ किरदार…
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