प्यास पे करबला रोया: अली असग़र अ.स. पर एक नौहा जो रूह तक हिला दे

कर्बला की दास्तान में अगर कोई लम्हा सबसे ज्यादा रूह को झकझोरता है, तो वो है अली असग़र अ.स. की शहादत। महज़ छह महीने की उम्र, दूध के लिए तड़पता बच्चा, और पिता इमाम हुसैन अ.स. की गोद में तीर की ज़ुबान से मिला जवाब — यह नज़ारा न केवल इतिहास बल्कि इंसानियत के सीने पर एक ऐसा ज़ख्म है, जो कभी नहीं भरता। ये नौहा सिर्फ़ एक मातमी नज़्म नहीं, बल्कि उस मासूम चीख़ का साज है जिसे न कोई ज़ुबां मिली, न ज़मीर ने जवाब दिया। ये तरन्नुम…

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ना शिया, ना सुन्नी, हिंदू या मुसलमान—हुसैन के दीवाने बस इंसान होते हैं

जब-जब दुनिया ने ज़ुल्म और अन्याय का क़हर देखा है, तब-तब करबला की सरज़मीं से उठी एक आवाज़ ने इंसानियत को राह दिखाई है। इमाम हुसैन का नाम सिर्फ किसी एक मज़हब या समुदाय की इबादत नहीं, बल्कि इंसाफ़, सच्चाई और हिम्मत की मिसाल है। वो जंग सिर्फ तलवारों की नहीं थी — वो जंग थी ज़मीर के ज़िंदा रहने की। आज जब मज़हबी पहचानें दीवारें खड़ी कर रही हैं, तब इमाम हुसैन की कुर्बानी हमें याद दिलाती है कि अल्लाह या भगवान से पहले, इंसान होना ज़रूरी है। हुसैन…

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