1975 में जब देवताओं ने स्क्रिप्ट लिखी, डायरेक्टर विजय शर्मा ने कैमरा सेट किया — और इस तरह शुरू हुई देव लोक की कहानी। जी हाँ, वहीं देव लोक, जहाँ गणेश जी सपरिवार बैठे थे और अचानक उन्हें याद आया कि चलो एक बेटी भी जोड़ लेते हैं — और संतोषी माँ का “फिल्मी जन्म” हुआ। बजट कम, श्रद्धा ज़्यादा: मंदिर में नहीं, थियेटर में पूजा! 10 लाख के बजट वाली इस फिल्म ने सिनेमाघरों को अस्थायी मंदिर में बदल दिया। लोग चप्पलें बाहर उतार कर अंदर जाते, फूल और…
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रोटी रिव्यू (1974): जब अपराधी बना मास्टरजी और पब्लिक बन गई पागल
अगर आप सोचते हैं कि रोटी सिर्फ आटे और पानी से बनती है — तो जनाब आप मनमोहन देसाई की फिल्म ‘रोटी’ नहीं देखे हैं। यहां राजेश खन्ना aka मंगल सिंह है जो फांसी से भागकर सीधे मास्टरजी बन जाता है। वो भी बिना B.Ed. किए। मुमताज़ हैं बिजली, जो इतनी पॉजिटिव है कि किसी को भी लाइन पर ला सकती हैं — और यहां तक कि एक अपराधी को भी टीचर बना देती हैं। भेष बदलो, माता-पिता चुरा लो, और फिर अपराध बोध में रहो मंगल सिंह ने जिस…
Read Moreरेट्रो रिव्यू गाइड: देव और वहीदा ने प्यार, मोक्ष और समाज से दो-दो हाथ किए
अगर आपने “आज फिर जीने की तमन्ना है” कभी गुनगुनाया है, तो इस फ़िल्म के बारे में जानना आपके जीवन के लिए उतना ही ज़रूरी है जितना इंस्टाग्राम पर “वहाँ कौन है तेरा” वाला ट्रेंड। देव आनंद और वहीदा रहमान अभिनीत गाइड (1965) कोई साधारण प्रेम कहानी नहीं, ये आत्मा की खोज, समाज की धूल झाड़ने, और इंसान की अधूरी इच्छाओं का महाकाव्य है। उपन्यास से स्क्रीन तक – आर.के. नारायण की आत्मा और विजय आनंद का कैमरा फ़िल्म आर के नारायण के उपन्यास “द गाइड” पर आधारित है, लेकिन…
Read Moreरेट्रो रिव्यू- लव इन शिमला : जब नज़रें मिलीं तो रशियन भी मदहोश हो गए
1960 में आई “लव इन शिमला”, कोई साधारण फिल्म नहीं थी—यह वो मोड़ था जहाँ साधना की आंखें, जॉय की स्माइल, और शिमला की वादियां मिलकर रोमांस का तूफान ले आईं। निर्देशक आरके नैयर और निर्माता शशाधर मुखर्जी ने फिल्मालय के बैनर तले एक ऐसी रचना की जो उस दौर की लड़कियों को चूड़ी पहनने और लड़कों को टाई बाँधने पर मजबूर कर गई। साधना का डेब्यू: चश्मे के पीछे का चमत्कार फिल्म में साधना ने ‘सोनिया’ का किरदार निभाया—एक लड़की जिसे उसकी सौतेली माँ और चचेरी बहन ताने मार-मारकर…
Read Moreसंगम रेट्रो रिव्यू: जब प्यार, दोस्ती और विदेश यात्रा तीन घंटे में फिट हो गए
राज कपूर की ‘संगम’ (1964) एक ऐसी फिल्म है जिसमें दोस्ती इतनी पवित्र थी कि अगर WhatsApp होता, तो शायद रणवीर (राज कपूर) का “Seen” भी एक इमोशनल सीन बन जाता।फिल्म में ट्रायंगल लव स्टोरी है, लेकिन प्लॉट इतना फैला हुआ कि आपको लगता है – “ये फिल्म नहीं, इमोशंस की रेलवे लाइन है, जिसमें हर स्टेशन पर आंसू हैं।” IND vs ENG : केएल राहुल के आउट होते ही लड़खड़ाया इंडिया लव लेटर, जो आज भी इंटरनेट स्पीड से तेज़ पहुंचता है! राजेंद्र कुमार का किरदार जब प्यार छुपाता…
Read Moreरेट्रो रिव्यू: नदिया के पार – प्रेम, परंपरा और पंखे की पुरानी हवा
1982 में आई फ़िल्म “नदिया के पार” किसी फिल्म से कम और गांव के चबूतरे पर बैठी दादी की कहानी से ज्यादा लगती है।ये फ़िल्म थी उस दौर की जब प्यार आंखों से होता था, मैसेज से नहीं। और शादी तय होती थी तुलसी के पौधे के पास, Tinder पर नहीं। जलेबी, वड़ा पाव और समोसे पर चेतावनी! अगला क्या? चाय पर हेल्थ टैक्स? हीरो: सीधे खेत से निकला देसी क्रश सचिन (चंदन) का किरदार ऐसा जैसे खेत में पैदा हुआ, कसम से ‘ग्लिसरीन’ के बिना भी आंखें नम कर…
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