1955 की देवदास सिर्फ़ एक फिल्म नहीं, बल्कि भारतीय सिनेमा के emotional syllabus का अनिवार्य पाठ है। शरत चंद्र चट्टोपाध्याय के उपन्यास पर आधारित ये फिल्म बिमल रॉय की निर्देशन कला और दिलीप कुमार की संजीदा अदाकारी का ऐसा संगम है जिसे देखकर आज भी दिल टूटता है और आंखें नम हो जाती हैं। प्यार, समाज और चिट्ठियों के बीच पिसता देवदास कलकत्ता से लौटा देवदास (दिलीप कुमार), गांव की पारो (सुचित्रा सेन) से बचपन का प्यार चाहता है… पर जात-पात, समाज, और पारो के पिताजी की ego-powered शादी प्लानिंग…
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रेट्रो रिव्यू फौलाद: दारा सिंह और मुमताज ने 60s के पर्दे पर आग लगा दी
फौलाद की कहानी सीधे-साधे प्रेम से नहीं, बल्कि शाही दरबार की भविष्यवाणी, जातिगत पृष्ठभूमि, और सत्ता की भूख से शुरू होती है। एक महाराजा जब यह सुनता है कि उसकी बेटी किसी “नीच जाति” के युवक से शादी करेगी और उसकी गद्दी खतरे में पड़ जाएगी, तो वह सारे नवजात निम्न जाति के लड़कों को मरवाने का आदेश देता है।“इतिहास गवाह है – जब नेताओं को अपनी कुर्सी डगमगाती दिखे, तो उनका पहला निशाना आम जनता ही होती है – फिर चाहे वो फिल्म हो या संसद।” अमर बना फौलाद…
Read Moreरेट्रो रिव्यू: दोस्ती (1964) – जब दोस्ती में रोना गारंटी था
1964 की फिल्म दोस्ती कोई फिल्म नहीं, एक एंटीक इमोशनल तोप थी, जो हर दर्शक की आंखों पर डायरेक्ट हमला करती थी। इस फिल्म को देखकर ऐसा लगता था जैसे डायरेक्टर ने कह दिया हो, “भाई, जो नहीं रोया, उसे टिकट फ्री!” प्लॉट या इमोशनल जाल? कहानी दो दोस्तों की है – एक अंधा, दूसरा लंगड़ा। सुनने में लगेगा कि ये कोई अस्पताल की दोस्ती है, पर नहीं – ये उस जमाने की स्क्रिप्ट है जब इमोशन का मीटर ऑटोमैटिक हायपर पर था। हर सीन में या तो किसी का…
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