
बॉलीवुड में सीक्वल का बुखार जारी है और इस दौर के सबसे व्यस्त खिलाड़ी हैं अजय देवगन। ‘सन ऑफ सरदार 2’ उसी कड़ी का हिस्सा है, लेकिन अफसोस… यह हिस्सा बाकी से कमज़ोर है। यह फिल्म 2012 की ‘सन ऑफ सरदार’ का स्टैंडअलोन सीक्वल है, पर कहानी और संवेदना दोनों पिछली फिल्म से नदारद हैं।
कहानी में उलझन और ठहाकों की तलाश
जस्सी (अजय) को 10 साल बाद वीजा मिलता है और वो लंदन पहुंचता है, मगर पत्नी डिंपल (नीरू बाजवा) अब किसी और की हो चुकी है। यहां से कहानी हल्की-फुल्की रोमांटिक ड्रामा बनने की कोशिश करती है, लेकिन जल्द ही पंजाबी-बिहारी-अंग्रेजी मम्मी, कब्रिस्तान की अफीम और नकली बाप के नाटक में तब्दील हो जाती है।
ह्यूमर या ह्यूमिलिएशन?
फिल्म का मकसद है आपको हंसाना – लेकिन ऐसा लगे कि कोई ज़बरदस्ती हंसी निकालवाना चाहता हो। कुछ फूहड़ जोक्स (ठरकी पापा, अफीम के फूल) और बेतुकी स्क्रिप्ट फिल्म को और बिखेरते हैं। हास्य कहीं-कहीं काम करता है, खासकर दीपक डोबरियाल के ट्रांसवुमन किरदार में।
एक्टिंग की फौज, लेकिन बिना आदेश के
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अजय देवगन: स्टार पावर तो है, लेकिन परफॉर्मेंस में जान नहीं।
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मृणाल ठाकुर: किरदार ठीक है, पर अजय के साथ केमिस्ट्री मिसफिट।
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रवि किशन: बिहारी सरदार के रोल में फिल्म के MVP।
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दीपक डोबरियाल: ट्रांसवुमन रोल में धमाकेदार, मगर स्क्रिप्ट ने बांधा।
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बाकी कलाकार: स्क्रीन टाइम कम और स्क्रिप्ट सपोर्ट और भी कम।
टेक्निकल पक्ष और डायरेक्शन
डायरेक्टर विजय कुमार अरोड़ा ने कैमरे का काम अच्छा किया, खासतौर पर विदेशी लोकेशन्स। लेकिन कहानी और स्क्रीनप्ले में तालमेल की भारी कमी है। गाने भुला देने लायक हैं, और एडिटिंग इतनी ढीली कि फिल्म लंबी और बोरिंग लगती है।
क्यों देखें/न देखें?
देखें अगर:
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अजय देवगन के कट्टर फैन हैं।
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कॉमेडी में लॉजिक नहीं खोजते।
न देखें अगर:
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स्टोरी, सेंस और स्क्रीनप्ले में इंटरेस्ट रखते हैं।
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ठहाके के बजाय सिर पकड़ने से परहेज़ है।
⭐ क्रिटिक रेटिंग: 2/5
“दिमाग का दरवाज़ा बंद करो, लेकिन दिल की उम्मीद खुली मत रखो।”
भगवा देख गुस्सा क्यों आता है? तय करो – दिक्कत हिंदू से है या संघ से