
गजेंद्र सिंह शेखावत ने संसद भवन के बाहर खड़े होकर इतिहास के पाइपलाइन में एक और दावा डाल दिया — “नेहरू जी ने बिना संसद या कैबिनेट की मंजूरी के पाकिस्तान को दे दिए 85 करोड़ रुपये!”
अब इससे पहले कि आप अपनी पानी की बोतल नीचे रखें, आइए समझते हैं ये पानी कितना गहरा है।
क्या बोले केंद्रीय मंत्री शेखावत?
संसद भवन के बाहर PTI से बात करते हुए, पर्यटन मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत ने कहा:
“सिंधु जल समझौते को पाकिस्तान के पक्ष में झुकाने के लिए नेहरू ने 85 करोड़ देने का निर्णय अकेले लिया। न संसद को पूछा गया, न कैबिनेट को। और जब दो साल बाद सवाल उठे तो नेहरू ने सवाल पूछने वालों को ही लताड़ दिया।”
अब आप कह सकते हैं, “इतिहास का पानी काफी गंदा हो गया है।”
समझौता या ‘पानी-पानी’ समझदारी?
शेखावत के अनुसार, देश की छह प्रमुख नदियों का बंटवारा आजादी के 13 साल बाद हुआ। और इसमें भी भारत को “आधी से कम” नदियाँ मिलीं, और पाकिस्तान को “पानी की पाइपलाइन”।
उनका आरोप था कि नेहरू ने किसानों के हितों की अनदेखी कर पानी पर विदेशी रिश्ते मजबूत करने को प्राथमिकता दी। और अब देश के किसान उसी ‘नीर’ की कीमत चुका रहे हैं।
सवाल वही पुराना: क्या सचमुच संसद अंधेरे में थी?
शेखावत ने दावा किया कि ना तो संसद से अनुमति ली गई और ना ही कैबिनेट से विचार-विमर्श हुआ। तो क्या ये “executive overreach” था या सिर्फ “राजनीतिक स्टंट”?
इतिहासकारों की किताबें खोलनी पड़ेंगी, लेकिन फिलहाल तो राजनीति की चाय में उबाल तेज़ है।
नेहरू जी उस दौर में शायद सोचते होंगे —

“पानी का क्या है, ये तो बहता ही है… लेकिन अफसोस, आज तक बहता आ रहा है – विवाद के रूप में!”
और अब 2025 में, इस पुराने फैसले का मीम वर्ज़न बन रहा है — “पानी दिया पाकिस्तान को, गुस्सा आया ट्विटर पर!”
किसानों की चिंता या राजनीति की खेती?
शेखावत के इस बयान के पीछे इरादा क्या है —
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वाकई इतिहास को सुधारने की कोशिश?
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या चुनावी मौसम में किसान कार्ड खेलने का अभ्यास?
ये तय करना मुश्किल है। लेकिन इतना तय है कि अब देश की राजनीति में ‘पानी’ भी हथियार है।
इतिहास का पानी साफ़ करना जरूरी है
अब जबकि इस दावे पर फिर बहस छिड़ी है, जरूरी है कि सरकार और इतिहासकार दोनों पारदर्शिता से तथ्यों को सामने रखें। ताकि ये साफ हो कि कौन ‘बांध’ बना रहा था और कौन ‘बहा’ रहा था।
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