
सत्यपाल मलिक का राजनीतिक जीवन किसी मसाला बॉलीवुड फिल्म की स्क्रिप्ट से कम नहीं था। उत्तर प्रदेश के बागपत के हिसावदा गांव से निकला ये नौजवान 1974 में महज़ 28 साल की उम्र में विधायक बना और फिर… पीछे मुड़कर कभी नहीं देखा।
उन्होंने राजनीति की तालीम चौधरी चरण सिंह के मार्गदर्शन में पाई और धीरे-धीरे भारतीय क्रांति दल, लोकदल, कांग्रेस, जनता दल, समाजवादी पार्टी, और अंत में बीजेपी जैसी तमाम पार्टियों की सियासी ‘पाठशालाएं’ देखीं।
राज्यपाल साहब या सिस्टम के ‘रिवोल्यूशनरी’?
बिहार से लेकर गोवा और मेघालय तक — और सबसे अहम जम्मू-कश्मीर के राज्यपाल के तौर पर — सत्यपाल मलिक ने ‘राज्यपाल’ पद को एक एक्टिव पॉलिटिकल मंच बना डाला।
2019 में जब अनुच्छेद 370 हटाया गया, तब राज्यपाल वही थे। विधानसभा भंग करने से लेकर प्रशासनिक फैसलों तक, पूरा सिस्टम उनके हाथ में था। लेकिन रिटायर होने के बाद उन्होंने जो दावे किए, वो सीधे प्रधानमंत्री कार्यालय को कटघरे में ले आए।
पुलवामा हमला: सरकार की चूक या चुप्पी की मजबूरी?
“सीआरपीएफ को एयरक्राफ्ट चाहिए थे, सरकार ने नहीं दिए। पुलवामा हमला रोका जा सकता था।”
उनके इस बयान ने सियासी पारा चढ़ा दिया। और जब पीएम मोदी से उनकी बातचीत का जिक्र करते हुए बोले कि “उन्होंने मुझे चुप रहने को कहा”, तब तो जैसे तूफान आ गया।
किसान आंदोलन पर बाग़ी तेवर
गवर्नर होते हुए भी सत्यपाल मलिक ने किसानों के लिए खुलकर आवाज़ उठाई:
“700 किसान मर गए, दिल्ली सरकार ने संवेदना तक नहीं जताई। मुझे कुत्ते ने नहीं काटा था कि मैं पंगा लूं — लेकिन इंसानियत मरी नहीं थी।”
उनकी यह लाइन सोशल मीडिया पर काफी वायरल हुई और एक तरह से उनके पॉलिटिकल करियर की नई पहचान बन गई — “बाग़ी गवर्नर”।
भ्रष्टाचार के खिलाफ ‘राजनीतिक संत’ की तरह
मलिक का दावा था कि जम्मू-कश्मीर में एक प्रोजेक्ट के बदले उन्हें ₹300 करोड़ की रिश्वत का ऑफर मिला। उन्होंने मना कर दिया और प्रधानमंत्री को बताया। लेकिन न कार्रवाई हुई, न कोई चर्चा। उलटा, CBI पूछताछ करने उनके दरवाज़े तक पहुंच गई।
“मैंने मोदी जी से कहा — आपके आस-पास के लोग दलाली कर रहे हैं। जवाब मिला — चुप रहो।”
विवादों के ‘पोस्टर ब्वॉय’
साल | बयान | विवाद का स्तर |
---|---|---|
2022 | “गवर्नर दारू पीता है, गोल्फ खेलता है” | वायरल |
2019 | “कश्मीर की तुलना पटना से” | टोन-डेफ |
2023 | “मोदी घमंड में हैं” | बवाल |
लोहियावादी आत्मा, सत्ता से जूझता मन
वे खुद को ‘लोहियावादी’ कहते थे, लेकिन कभी भी एक विचारधारा में बंधे नहीं रहे। उनके लिए राजनीति “लड़ाई” थी — कभी सत्ता के लिए, कभी सच के लिए। और कभी-कभी दोनों से ही।
मौत से पहले की राजनीतिक ‘वसीयत’
उनका आखिरी साल CBI पूछताछ, किसानों के समर्थन और मोदी सरकार की खुली आलोचना में गुज़रा। वे न राज्यपाल जैसे लगे, न रिटायर्ड। वे जनता की अदालत में ‘न्यायिक कार्यकर्ता’ की तरह दिखाई देने लगे।
निधन की पुष्टि
5 अगस्त 2025 को दोपहर 1:12 बजे, दिल्ली के राम मनोहर लोहिया अस्पताल में सत्यपाल मलिक का लंबी बीमारी के बाद निधन हो गया। उनके निजी सचिव केएस राणा ने पुष्टि की।
आखिरी शब्दों की गूंज
“मुझे सत्ता से नहीं, सत्य से प्यार है। मैं चुप नहीं रहूंगा।”
और वाक़ई, वे चुप नहीं रहे — जब तक ज़िंदा रहे, कुछ न कुछ कहते रहे, करते रहे, चुभते रहे।