
मेहरान अमरोही की इस फिल्म में गरीबी है, चाय वाला है लेकिन मेलोड्रामा नहीं है। फिल्म ‘चिड़िया’ की कहानी जितनी साधारण लगती है, उतनी ही सटीक चुभन छोड़ जाती है। मुंबई की चॉल, टूटी बालकनी और बिखरे सपनों के बीच दो बच्चे — शानू और बुआ — अपने बैडमिंटन सपने को पूरा करने की जद्दोजहद में जुटे हैं। और इस जद्दोजहद में अगर आपको श्रेयस तलपड़े से कॉक और इनामुलहक से नेट मिल जाए तो समझिए, ये इंडिया है बाबू।
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मां की ममता बनाम मासिक किस्त
अमृता सुभाष की मां वैष्णवी, एक ‘साड़ी फॉल वाली मां’, जो सिर्फ साड़ी नहीं बल्कि अपने सपनों को भी सिलती है। पति के निधन के बाद भावनाएं नहीं, बजट चलता है। और वो बजट बच्चों की स्कूल फीस से टकरा जाता है।
चाचा बाली: स्पॉट बॉय, लेकिन इमोशनल हीरो
विनय पाठक का किरदार बाली शायद बॉलीवुड का सबसे सच्चा स्पॉट बॉय है — स्पॉट भी करता है और बॉय भी बनता है। उनके हिस्से के संवाद, जैसे “उधर पिक्चर में एक ही हीरो होता है, बाकी सब मजदूर होते हैं” — सिर्फ स्क्रिप्ट नहीं, सिस्टम पर सवाल हैं।
एक्टिंग का असली चिड़िया कौन?
शानू और बुआ का नेचुरल परफॉर्मेंस, दिल से अपील करता है। इशानी (हेतल गाड़ा) ने सपनों को उड़ान देने में बराबर भागीदारी निभाई है। इनामुलहक एक दिव्यांग दर्जी के रूप में पैच नहीं, पंच मारते हैं। और बृजेंद्र काला, चाय वाले बनकर, दर्शकों की आंखें नम कर देते हैं — इतना इमोशनल टी-बैग किसी विज्ञापन में भी नहीं आता।
संगीत में दर्द, कविता में कॉक
शैलेंद्र बर्वे का संगीत “ए दिल की नन्हीं चिड़िया” और “दोनों तरफ सन्नाटा” जैसे गीतों के ज़रिए कहानी के इमोशन्स को बैडमिंटन शटल की तरह उड़ाता है — कभी ऊपर, कभी नीचे, और अंत में सीधा दिल पर स्मैश।
डायरेक्शन और सिनेमैटोग्राफी का कॉम्बो प्ले
मेहरान अमरोही की डायरेक्शन में कोई नाटकीय स्पाइक नहीं है। ये एक ऐसा मैच है जो आंखों से नहीं, दिल से खेला गया है। विकास जोशी की कैमरा वर्क चॉल की दीवारों के पीछे छिपी कहानियों को उजागर करती है, बिलकुल वैसे जैसे बच्चे रैकेट के पीछे कॉक को ढूंढते हैं।
मेहरान अमरोही क्या कहते हैं
यह कहानी मेरे दिल के बेहद करीब है। ‘चिड़िया’ का विचार मुझे उस समय आया जब मैं रोज़मर्रा की ज़िंदगी में बच्चों के सपनों को बिखरते हुए देख रहा था। उनका मासूमपन, छोटी-छोटी जिदें, और उन जिदों को पूरा करने की जद्दोजहद—इन सबने मुझे अंदर तक झकझोर दिया।
मुझे महसूस हुआ कि इस तेज़ रफ्तार ज़िंदगी में हम कहीं न कहीं बचपन की भावनाओं को भूलते जा रहे हैं। बस, इसी एहसास को लेकर मैंने इस फिल्म की कहानी लिखी—एक छोटी-सी दुनिया की कहानी, जहां दो छोटे बच्चे बड़े सपने देखते हैं।
उनकी उड़ानें भले ही छोटी हों, लेकिन उनका हौसला किसी भी परिंदे से कम नहीं।
क्यों देखें ‘चिड़िया’?
क्योंकि ये फिल्म बताती है कि सपने अमीर नहीं होते, जिद्दी होते हैं। क्योंकि यहां बच्चे स्पॉन्सर नहीं, सपनों से खेलते हैं।
और क्योंकि अगर आपको रोते-हंसते बैडमिंटन खेल देखना है, तो “चिड़िया” मिस न करें।
रेटिंग: ★★★★½ (4.5/5)
फाइनल वर्डिक्ट:
“चिड़िया” उस दुर्लभ श्रेणी की फिल्म है जो आपको हँसाकर रुला देती है — और फिर बिना ज़्यादा शोर-शराबे के आपके ज़ेहन में बस जाती है। सादगी, सच्चाई और संवेदना का एक संतुलित पैकेज जो बच्चों की दुनिया से होते हुए हमारे समाज की तस्वीर भी दिखाता है। अगर आप थ्रिलर के नाम पर थप्पड़ नहीं, ठहराव चाहते हैं — तो यह फिल्म आपके दिल के नेट पर सही स्मैश है।
देखिए जरूर — क्योंकि चिड़िया उड़कर दिल तक जाती है!