“भगवा हुआ साफ़”: NIA की जांच गई धुंए में, कोर्ट ने सभी आरोपी बरी किए

सत्येन्द्र सिंह ठाकुर
सत्येन्द्र सिंह ठाकुर

17 साल की लंबी कोर्ट-यात्रा, 101 घायल, 6 मृत और NIA की थकी-हारी चार्जशीट के बाद आखिरकार मालेगांव बम ब्लास्ट केस का पटाक्षेप हो गया। गुरुवार को विशेष NIA अदालत ने सभी सात आरोपियों को “संशय का लाभ” देते हुए बरी कर दिया। जिनमें प्रमुख नाम हैं – पूर्व बीजेपी सांसद साध्वी प्रज्ञा ठाकुर और आर्मी अफसर लेफ्टिनेंट कर्नल पुरोहित

जांच में “गंभीर खामियां”, सबूतों में नहीं थी दम: कोर्ट की दो टूक

विशेष न्यायाधीश ए.के. लाहोटी ने कहा कि अभियोजन पक्ष के पास ऐसा कोई ठोस और विश्वसनीय सबूत नहीं है, जो आरोपियों की संलिप्तता साबित कर सके।

  • बाइक किसकी थी? साबित नहीं हुआ।

  • बम उसी बाइक पर था? पता नहीं चला।

  • UAPA लगेगा? नहीं, कोर्ट ने कहा ‘नॉट अप्लिकेबल’।

बकौल अदालत, केस में न ही आतंकवाद के प्रमाण थे, न ही कोई पुख्ता लिंक।

“मैं संन्यासी हूं, इसलिए ज़िंदा हूं” – साध्वी प्रज्ञा का दर्द

फैसले के बाद साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने कहा:

“मुझे षड्यंत्र के तहत फंसाया गया। भगवा को बदनाम किया गया। एक साधु का जीवन जी रही थी, लेकिन मुझे टॉर्चर किया गया। आज भगवा की जीत हुई।”

संन्यासिन की भाषा, सियासत की भावना, और कोर्ट का फैसला — सबने मिलकर एक बड़ी सियासी हलचल पैदा कर दी है।

क्या था मामला?

  • दिनांक: 29 सितंबर 2008

  • स्थान: मालेगांव, महाराष्ट्र

  • हादसा: मस्जिद के पास खड़ी मोटरसाइकिल में विस्फोट

  • परिणाम: 6 मौतें, 101 घायल

  • जांच एजेंसी: शुरुआत में ATS, फिर 2011 में NIA

ये थे 7 आरोपी

  1. साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर

  2. ले. कर्नल प्रसाद श्रीकांत पुरोहित

  3. मेजर रमेश उपाध्याय

  4. अजय राहिरकर

  5. सुधाकर द्विवेदी

  6. सुधाकर चतुर्वेदी

  7. समीर कुलकर्णी

इन सभी पर UAPA, IPC और Arms Act की धाराएं लगी थीं, लेकिन अब सब बरी हो गए।

राजनीतिक रिएक्शन: राउत बनाम शाह, बयानबाज़ी का धमाका

शिवसेना (UBT) नेता संजय राउत ने कहा, “ये न्याय नहीं, राजनीति है।” तो वहीं बीजेपी खेमे में इसे “हिंदुत्व की जीत” बताया जा रहा है।

सबूत नहीं मिले, पर सुबूतों का वजन बहुत था!

17 साल में NIA को इतने “सबूत” मिले कि वो खुद ही कोर्ट में खो गए।
जैसे पुलिस कहे:

“बम तो वहीं था… शायद… बाइक भी थी… लगता है… पर किसकी थी? ये रहस्य ही रहेगा।”

न्याय मिला या खो गया वक्त?

इस फैसले ने जांच एजेंसियों की निष्पक्षता, राजनीतिक दखल, और धार्मिक पहचान के आधार पर मुकदमे चलाने जैसे कई सवाल खड़े कर दिए हैं।

बिलकुल सही कहा गया है –
“न्याय में देरी, कभी-कभी अन्याय से भी बड़ा अन्याय बन जाती है।”

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