
भारत में लोकतंत्र की रीढ़ कही जाने वाली संस्था – न्यायपालिका (Judiciary) – इन दिनों एक अलग ही किस्म के दबाव में है।
अब एक नया ट्रेंड देखने को मिल रहा है:
“जब कोर्ट का फैसला पक्ष में हो तो सर आंखों पर। और न आए तो कोर्ट पर ही सवाल उठाओ!”
ऐसा ट्रेंड न सिर्फ लोकतंत्र की सेहत के लिए खतरनाक है, बल्कि आम जनता में न्यायपालिका की विश्वसनीयता को भी कमजोर करता है।
जब सुप्रीम कोर्ट सिर्फ एक “राजनीतिक टूल” बन जाए?
कई नेता, जब कोई फैसला उनके खिलाफ आता है, तो तुरंत सुप्रीम कोर्ट की “नीयत”, “प्रक्रिया” या “गठजोड़” पर उंगली उठाने लगते हैं। वहीं, जब वही कोर्ट उन्हीं के पक्ष में फैसला सुनाता है — तो उसी के आगे नतमस्तक हो जाते हैं।
यह दोहरा रवैया न केवल जनता को भ्रमित करता है, बल्कि एक खतरनाक मैसेज देता है:
“हमारे खिलाफ कोई भी संस्था सही नहीं है।”
ये ट्रेंड नेताओं के समर्थकों में क्या संदेश देता है?
न्यायपालिका को “सूटेबल नेरेटिव” के हिसाब से देखना
फैसले के आधार पर जजों को “भक्त” या “देशद्रोही” कहना
सोशल मीडिया पर हेट कैम्पेन चलाना
कोर्ट की हर प्रक्रिया को राजनीतिक चश्मे से आंकना
ये सब बातें सीधे जन विश्वास को चोट पहुंचाती हैं।
आने वाले समय में असर क्या हो सकता है?
आम जनता में कोर्ट की निष्पक्षता पर शक
जजों की स्वतंत्रता पर राजनीतिक दबाव
युवा पीढ़ी में लोकतंत्र के प्रति अनास्था
लोकतंत्र के तीनों स्तंभों में टकराव
और सबसे बड़ी बात — “फैसले से पहले ही फैसला” जनता कर ले, ये स्थिति न्याय की आत्मा को मारने वाली है।
“कोर्ट पर भरोसा या कोर्ट पर हमला?” — फैसला आपको करना है
लोकतंत्र तभी मजबूत होता है जब जनता और नेता दोनों संविधान और न्यायपालिका की मर्यादा को समझें और स्वीकारें।
“सत्ता आती-जाती रहती है, लेकिन कोर्ट का सम्मान बना रहना चाहिए।”
वरना वो दिन दूर नहीं जब हर संस्था एक “पार्टी ऑफिस” में बदल जाएगी — और फिर “न्याय” इतिहास की किताबों तक सिमट जाएगा।
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