सनातन ने बर्बाद किया देश – आव्हाड, निरुपम ने कहा- तो तुम ‘जित्तुद्दीन’ होते

भोजराज नावानी
भोजराज नावानी

महाराष्ट्र के एनसीपी (शरद पवार गुट) विधायक जितेंद्र आव्हाड ने एक बार फिर सुर्खियों में आने का मौका नहीं गंवाया।

उन्होंने कैमरे के सामने सनातन धर्म को भारत की बर्बादी की जड़ बताया, और बताया कि कैसे सनातनी सोच ने:

  • वर्ण व्यवस्था को जन्म दिया,

  • दलितों और महिलाओं को सताया,

  • शिवाजी का राज्याभिषेक रोकने की कोशिश की,

  • सावित्रीबाई फुले को गोबर से मारने जैसी घटनाएं कीं।

संक्षेप में, उन्होंने इतिहास की पूरी किताब ‘एक धर्म विशेष’ पर फेंक दी।

निरुपम का ‘जित्तुद्दीन’ पंच — बयानबाज़ी का अलीगढ़ ताला खुल गया!

शिवसेना नेता संजय निरुपम ने इस बयान पर रिएक्शन दिया और सीधे ‘तलवार’ निकाल ली।
उन्होंने लिखा:

“अगर सनातन धर्म न होता, तो आज जितेंद्र आव्हाड नहीं, ‘जित्तुद्दीन’ होते। भारत अब तक सऊदी अरब बन गया होता।”

इतना ही नहीं, निरुपम ने ये भी कहा कि:

  • आव्हाड ने झूठी कहानियों से सनातन को बदनाम किया,

  • सनातन ही भारत की संस्कृति, परंपरा और अस्तित्व का आधार है।

बयानबाज़ी या वोट बैंक की केमिस्ट्री?

कई लोगों ने इस बयान को राजनीतिक स्टंट बताया, तो कुछ ने इसे समाज सुधार की बहस का नाम दिया।
लेकिन अधिकतर लोग सोच में पड़ गए कि:

“क्या ये धर्म पर विचार है या चुनावी वैचारिक एक्शन फिल्म की स्क्रिप्ट?”

जितेंद्र आव्हाड: विवादों के पुराने खिलाड़ी

बात सिर्फ इस बयान की नहीं है।
आव्हाड का इतिहास बयानबाज़ी से भरा है:

  • भगवान राम को मांसाहारी बताया

  • पुलिस वैन रोकने पर केस दर्ज हुआ

  • विपक्षी विधायक को गाली-गलौच

  • और अब सनातन धर्म को भारत की बर्बादी का ठेकेदार बता देना!

उनकी विवादों की ‘प्ले लिस्ट’ लंबी होती जा रही है, शायद YouTube पर डाले तो 1M सब्सक्राइबर मिल जाएं।

सनातन बनाम आधुनिकता: विमर्श या विघटन?

आव्हाड का तर्क, “सनातन ने नीच-उच्च, छुआछूत और भेदभाव फैलाया।”

विरोधियों का जवाब:
“तो क्या धर्म को खत्म करके समाज सुधरेगा या शिक्षा से सुधरना होगा?”

सवाल यह है कि:

  • क्या हर ऐतिहासिक अन्याय का ठीकरा सनातन पर फोड़ना तर्कसंगत है?

  • या यह सिर्फ “वोट खींचो, धर्म बेचो” की राजनीति है?

सनातन अगर न होता, तो क्या सभी MLA अरब लुक में होते?

अगर जितेंद्र आव्हाड के बयान पर चलें,
तो भारत में:

  • स्कूल मदरसों में बदल जाते,

  • विधानसभाएं दरगाहों में तब्दील हो जातीं,

  • और नेताजी का नाम “हाजी प्रोफेसर डॉ. जित्तुद्दीन साहब” होता।

इतिहास की समीक्षा ज़रूरी है, लेकिन धर्म की समीक्षा बिना संवेदनशीलता के, राजनीति का सबसे सस्ता हथियार बनती जा रही है।

‘जुबान की राजनीति’ कब तक चलेगी?

“राजनीति में विचारधारा होनी चाहिए, लेकिन ज़बान की मर्यादा उससे भी ज़्यादा ज़रूरी है।”

आव्हाड हों या निरुपम, दोनों की ज़ुबान से TRP तो मिल रही है, लेकिन समाज में सोचने और समझने की संस्कृति कहीं पीछे छूटती जा रही है।

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