
पिछले एक हफ्ते से ईरान और इज़राइल के बीच युद्ध किसी फिल्मी क्लाइमैक्स की तरह चल रहा है — दिन-रात मिसाइलें, धमाके और टीवी पर ब्रेकिंग न्यूज़। शुक्रवार शाम को तो हद ही हो गई जब ईरान ने तेल अवीव, बीर्शेबा और हाइफा जैसे प्रमुख शहरों पर सीधा हमला कर दिया।
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25 बैलिस्टिक मिसाइलें: “निशाना मिलिट्री, असर आम आदमी पर”
ईरान ने दावा किया है कि उसने 25 बैलिस्टिक मिसाइलों से इज़राइली मिलिट्री ठिकानों, डिफेंस इंडस्ट्रीज और कंट्रोल सेंटर्स को निशाना बनाया। लेकिन वास्तविकता में हाइफा के नागरिक अस्पताल, बीर्शेबा की सड़कों और घरों पर बम बरसे।
23 घायल, 3 गंभीर, एक 16 साल का बच्चा भी शामिल — सवाल है, ये युद्ध है या मासूमों पर सजा?
क्लस्टर बम का कहर: “सीधा घरों पर ‘विकास’ की बारिश”
ईरान ने बीर्शेबा पर क्लस्टर बम से हमला किया, जिससे कई कारें जल गईं और घर तबाह हो गए। ऐसा हमला तो दुश्मन के युद्धक विमान पर होता है, न कि आम नागरिकों पर।
गुरुवार को अस्पताल पर मिसाइल गिराना तो इस युद्ध का सबसे काला अध्याय था।
यह हमला नहीं, एक असंवेदनशील आत्मविश्वास का विस्फोट था — जिसमें न बच्चे देखे गए, न दवाइयाँ।
जब सब बंद थे, तब भारत ने एयरस्पेस खोला
इस युद्ध में अगर किसी ने सबसे शांत और सोच-समझकर फैसला लिया है, तो वह है ईरान का भारत के प्रति कदम।
ईरान ने भारतीयों के लिए अपना एयरस्पेस खोल दिया है ताकि भारत सरकार ऑपरेशन सिंधु के तहत अपने नागरिकों को रेस्क्यू कर सके।
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1,000 से ज़्यादा भारतीयों को 3 फ्लाइट्स से निकाला जाएगा
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पहली फ्लाइट मशहद से, दूसरी अश्गाबात से, आज रात दिल्ली पहुंचेगी
जब मिसाइलें गिरीं, भारत ने एयरलिफ्ट की फ्लाइटें उड़ाईं — यही फर्क बनाता है!
ऑपरेशन सिंधु: “भारत की चुप्पी भी बोलती है”
भारत ने इस पूरे युद्ध में न कूटनीतिक बयानबाज़ी की, न पक्षपात, सिर्फ अपने नागरिकों की सुरक्षा को प्राथमिकता दी।
शायद यही कारण है कि ईरान ने भारतीयों को निकालने के लिए अपना वॉर-ज़ोन एयरस्पेस खोला, और इज़राइल ने भी कोई आपत्ति नहीं जताई।
“शांत रहो, लेकिन कमज़ोर नहीं दिखो” — भारत की नीति इस संकट में साफ़ दिखी।
युद्ध सबका होता है, मरते सिर्फ मासूम हैं
ईरान और इज़राइल की जंग का कोई अंत नहीं दिख रहा — लेकिन एक बात साफ़ है, इससे सबसे ज़्यादा नुकसान सामान्य नागरिकों और शांति की चाह रखने वालों को हो रहा है।
और शुक्र है, भारत ने इस युद्ध को मौका नहीं, मानवीय संकट माना। अगर यही सोच दुनिया की हो जाए, तो शायद मिसाइलें फैक्ट्रियों में ही जंग खा जाएं।
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