
भारत में कुर्सी सिर्फ लकड़ी या स्टील का बना बैठने का साधन नहीं है। यह लक्ष्य भी है, सपना भी। सत्ता भी है, सत्ता का सत्यापन भी। यहाँ कुर्सी पर बैठने से आदमी नेता बनता है, और उठते ही “पूर्व”।
कुर्सी यहाँ हसरत भी है और हकीकत भी। इस देश में कुर्सी की पूजा होती है, और चुनावों में तो इसे तख़्त-ओ-ताज मान लिया जाता है।
राजनीति में कुर्सी: जितनी ऊँची, उतनी बड़ी लड़ाई
यहाँ हर 5 साल में नहीं, हर साँस में चुनाव होता है। पार्षद से लेकर प्रधानमंत्री तक — सभी की ultimate fantasy है: कुर्सी पर बैठना।
कभी-कभी तो ऐसा लगता है जैसे भारत की संसद नहीं, IKEA का पॉलिटिकल शोरूम हो गया हो।
सत्ता में आओ, कुर्सी पाओ। कुर्सी मिल जाए, तो जमी रहो और न मिले, तो दूसरों की कुर्सी हिलाओ “हमें क्या चाहिए? — कुर्सी! कब चाहिए? — अभी!”
यहाँ के कुछ राजनीतिक नारों का अनऑफिशियल थीम यही होता है।
कॉर्पोरेट में कुर्सी: मैनेजर बनते ही कुर्सी का एंगल बदल जाता है
भारतीय कॉर्पोरेट सेक्टर में भी कुर्सी वही राजनीति करती है, जो संसद में होती है। कुर्सी swivel है, पर पॉलिटिक्स rigid। HR से लेकर CEO तक, सबकी एक ही प्यास — corner cabin वाली कुर्सी!
Promotion का मतलब?
“आपकी कुर्सी अब खिड़की के पास हो गई है”
Resignation का मतलब?
“अब आपकी कुर्सी किसी और के लिए खाली की जा रही है”
आम आदमी और कुर्सी: पार्क में भी लाइन में है
यहाँ मोहल्ले की चौपाल हो या दिल्ली की लॉन में रखा प्लास्टिक का स्टूल — अगर बैठने को है, तो कुर्सी पर कब्ज़ा ज़रूरी है। “पहले मैं बैठूंगा” से लेकर “कौन उठा मेरी कुर्सी?” तक — हर स्तर पर कुर्सी युद्ध जारी है।
स्कूल के क्लास मॉनिटर से लेकर शादी में दूल्हे की कुर्सी तक — इंडियन लाइफ में कुर्सी ही लाइफलाइन है।
कुर्सी और संस्कार: विरासत में मिलती है
राजनीतिक परिवारों में कुर्सी जेनेटिक होती है।
पापा सीएम तो बेटा भावी पीएम, भतीजा विधायक, और ड्राइवर का बेटा भी मंत्री पद की ट्रेनिंग में।

यहाँ “राजतिलक नहीं होगा तुम्हारे ताऊजी के बेटे को!” जैसी कहानियाँ Game of Thrones से भी ज़्यादा पॉपुलर हैं।
मीडिया में कुर्सी: डिबेट कम, ड्रामा ज़्यादा
न्यूज़ चैनलों में “कुर्सी किसकी?” पर डिबेट होती है, लेकिन पीछे से एंकर खुद सोच रहा होता है — “TRP की कुर्सी मेरी होनी चाहिए”।
Anchors की कुर्सी ज़्यादा घूमती है या पॉलिटिशन की — ये रिसर्च का विषय है।
कुर्सी योग: बाबा भी पीछे नहीं
योगगुरु कहते हैं — “कुर्सी पर बैठकर भी ध्यान किया जा सकता है”
पर राजनीति वाले कहते हैं — “कुर्सी पाकर ही चैन मिलता है”
कुर्सी है तो देश है!
भारत में ‘कुर्सी’ से बड़ा कोई मुद्दा नहीं। धर्म, जाति, भाषा, विकास — सब बाद में। पहले पूछो: “कुर्सी किसकी?”
तो अब सवाल नहीं, सिर्फ़ एक लाइन याद रखिए:
“भारत लोकतांत्रिक देश है, लेकिन इसमें लोकतंत्र की आत्मा कुर्सी है।”
“इस देश में किसी को कुछ चाहिए या न चाहिए — बस कुर्सी चाहिए।”
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