कब्रिस्तान में गोशाला? गऊमाता बोले – RIP बाबा, चलो अब यहीं बसते हैं

सत्येन्द्र सिंह ठाकुर
सत्येन्द्र सिंह ठाकुर

भोपाल का कोलार अब मेट्रो स्टाइल सड़कें, ऊंची इमारतें और नीली टीन की दीवारों के पीछे ज़मीन की दौलत पर नया संग्राम देख रहा है। यहाँ एक ज़मीन है जिसे कुछ लोग क़ब्रिस्तान कहते हैं, कुछ गोशाला का भविष्य
और कुछ इसे “सियासत की प्रयोगशाला” मान चुके हैं।

कब्रिस्तान था या नहीं? जवाब: “थोड़ा था, थोड़ा नहीं था”

मोहम्मद हनीफ़, क़ब्रिस्तान समिति के अध्यक्ष, कहते हैं, “1959 से लेकर 2011 तक यहाँ दफ़न हुआ है, आख़िरी क़ब्र बद्दू दादा की थी।”

और फिर आए रिकॉर्ड्स, GPS मैपिंग और ज़िला प्रशासन का बयान, “आपका क़ब्रिस्तान तो बगल में है साहब, ये तो निजी ज़मीन है!”
2013 में हनीफ़ ने ज़मीन को वक़्फ़ बोर्ड में दर्ज कराया, पर 2015 आते-आते ज़िला प्रशासन ने कहा – “भाई! लोकेशन ग़लत है!”

गोशाला वाला कौन? कॉलेज मालिक और सोशल वर्कर – अश्विनी श्रीवास्तव

22 जून 2025 को ज़मीन पर भूमि पूजन कराया गया, बीजेपी विधायक रामेश्वर शर्मा को बुलाया गया, नारियल फोड़ा गया और कैमरे चमके।

जब बवाल हुआ, तो श्रीवास्तव बोले – “भूमि पूजन मेरी ग़लती थी। चैरिटी करना चाहता था, कोई पॉलिटिक्स नहीं!”

और फिर जोड़ा, “क़ब्रिस्तान कभी था ही नहीं। नवाबी ज़माने का श्मशान होगा शायद!”
मतलब, इतिहास भी अब शक के घेरे में है।

वक़्फ़ बोर्ड का किरायानामा ड्रामा: पहले किराया लिया, फिर निरस्त कर दिया

औक़ाफ़-ए-अम्मा के अधिकारी बताते हैं कि ज़मीन वक़्फ़ की है। लेकिन 2009 में खुद श्रीवास्तव को किराए पर दी गई थी! 2019 में निरस्त कर दिया गया, लेकिन उससे पहले वह किरायेदार बन चुके थे।
सवाल: क्या वक़्फ़ खुद भी नहीं जानता कि किसको क्या किराए पर देना है?

प्रशासन का जवाब: “जांच चल रही है, वक़्फ़ चाहे तो आकर बोले”

SDM आदित्य जैन ने कहा – “काम पर रोक लगाई गई है, जांच समिति बनी है। वक़्फ़ का कोई मेंबर शामिल नहीं, लेकिन वो आकर बोल सकते हैं।”

यानि जो सबसे ज़्यादा बोलना चाहता है, वो बेंच के बाहर खड़ा है।

 ज़मीन का खसरा: असली कब्रिस्तान तो बगल वाला था?

पुराने निवासी सत्तार ख़ान बोले, “मेरे वालिद, माँ और बेटा सब वहीं दफ़न हैं। लेकिन प्रशासन ने कहा वो ज़मीन तो किसी और की है!”

अब समस्या ये है कि पहले कब्रिस्तान जिस ज़मीन पर था, वो किसी और की निकली। अब जो “नई” ज़मीन मिली है, उस पर गोशाला बन रही है

 “गोशाला से दिक्कत नहीं, लेकिन मेरी ज़मीन पर क्यों?”

हनीफ़- गोशाला बुरी चीज़ नहीं है। हम भी साथ देंगे। लेकिन कब्रिस्तान पर गोशाला बनाना मतलब जैसे किसी के घर पर गोदाम बना देना।

कब्रिस्तान हो, गोशाला हो या राजनीति – ज़मीन सबकी भूख है!

इस मामले में भावनाएं, धर्म, दस्तावेज़, राजनीति और भ्रम – सब कुछ शामिल है।

अब देखना ये है कि कब्र की इज़्ज़त ज़्यादा भारी पड़ती है या गोशाला की गऊमाता?
और सबसे बड़ा सवाल – जांच समिति क्या कहेगी: “RIP वक़्फ़ रिकॉर्ड्स!” या “जय गऊ माता”?

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