
नेचर ह्यूमन बिहेवियर जर्नल में प्रकाशित एक ताज़ा अध्ययन बताता है कि कामकाजी सप्ताह को चार दिन पर लाने से न सिर्फ़ कर्मचारियों की सेहत सुधरी, बल्कि उनकी ख़ुशी और संतुष्टि भी बढ़ी।
यह ट्रायल अमेरिका, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, कनाडा, आयरलैंड और न्यूज़ीलैंड की 141 कंपनियों पर किया गया — यानी सिर्फ़ एक ऑफिस में नहीं, दुनिया के हर कोने में इसका असर देखा गया।
सेहत और संतुष्टि: काम कम, जीवन ज़्यादा
बर्नआउट (तनाव‑टूटना), नौकरी से संतुष्टि, शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य में सुधार देखा गया।
ख़ास बात: कंपनियों ने उत्पादन (प्रोडक्टिविटी) और राजस्व (Revenue) दोनों में बढ़त दर्ज की।
अध्ययन की लेखिका, वेन फ़ैन, कहती हैं कि ट्रायल खत्म होने के बाद भी 90% कंपनियों ने चार‑दिन वर्क वीक को जारी रखने का फ़ैसला लिया।
उदाहरण कहीं दूर नहीं हैं
आइसलैंड: लगभग 90% लोगों को कम घंटे काम करने का अधिकार मिल चुका है।
दक्षिण कोरिया: कई कंपनियाँ अक्टूबर से चार‑दिन वाला सप्ताह ट्रायल कर रही हैं।
टोक्यो, दुबई आदि देशों में सरकारी कर्मचारियों के लिए भी ये मॉडल अब चल रहा है।
संस्कृति की दीवार: ज़्यादा काम को गर्व की निशानी मानना
प्रोफ़ेसर फ़ैन बताती हैं कि कई देशों में “काम ज़्यादा करना” श्रेय की तरह माना जाता है।
जापान का “करोशी” शब्द है — काम से मौत। लोग बिना ज़रूरी कार्य के भी देर तक दफ्तर में रुके रहते हैं, सिर्फ यह दिखाने के लिए कि “मैंने काम किया”।

भारत और चीन में भी “overtime = समर्पण” जैसी मानसिकता पाई जाती है।
कैसे संभव है परिवर्तन?
बेवजह की मीटिंग्स कम करें, जरूरी काम पर फोकस बढ़ाएँ।
ऑफ़िस की संस्कृति में बदलाव लाएँ — वर्क फ्रॉम होम, हाइब्रिड मॉडल, काम का समय लचीलापन।
कंपनियों के निर्णय‑निर्माता (leaders) समझें कि कितने घंटे काम से ज़्यादा, कैसे काम करना है, उससे ज़्यादा मायने रखता है।
क्या चार‑दिन वर्क वीक हर जगह हो सकती है?
हाँ… पर हर जगह नहीं। कुछ क्षेत्रों में (जैसे मैन्युफैक्चरिंग, हॉस्पिटैलिटी, ज़्यादा शारीरिक श्रम वाले काम) बदलाव करना आसान नहीं है।
लेकिन यही बदलाव हो रहा है — जहाँ लागू किया गया है, वहाँ परिणाम शानदार हैं: तंदरूस्त कर्मचारी, कम छुट्टियाँ बीमारी के कारण, ज़्यादा रचनात्मकता, ज़्यादा “लीफ़-आउट ऑफ वर्किंग डेज़” में आराम।
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