72 की कुर्बानी ने हिला दी थी सल्तनत! क्यों मनाते हैं चहल्लुम?

सैफी हुसैन
सैफी हुसैन

चहल्लुम (Chehlum) यानी इमाम हुसैन की शहादत का 40वां दिन, जो हर साल 20 या 21 सफर (इस्लामी महीना) को मनाया जाता है। इस दिन दुनिया भर के मुसलमान खासकर शिया समुदाय, इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की करबला में दी गई शहादत को याद करता है।

करबला की जंग: हक बनाम ज़ुल्म

इस्लाम के पैगम्बर मोहम्मद ﷺ के नवासे हजरत इमाम हुसैन ने 10 मुहर्रम को यज़ीद की सत्ता और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई।

  • यज़ीद: एक ज़ालिम हाकिम जिसने खिलाफत को तानाशाही में बदल दिया था।

  • हुसैन: जिनके पास सिर्फ 72 सच्चे साथी थे।

  • यज़ीद की फौज: 22000 सैनिक, हथियारों से लैस।

फिर भी, हुसैन ने हक और इंसानियत के लिए सब कुछ कुर्बान कर दिया – अपने छोटे बच्चों, जवान बेटों और खुद की जान भी।

चहल्लुम का इतिहास

जब इमाम हुसैन शहीद हुए, उनके परिवार के बचे हुए लोगों को यज़ीद की कैद में ले जाया गया। वापसी के सफर में उनके बेटे हज़रत ज़ैनुल आबेदीन करबला पहुंचे और वहीं अपने शहीद परिजनों को दफ्नाया। उसी दिन को “चहल्लुम” कहा गया – यानी शहादत का चालीसवां दिन

कैसे मनाया जाता है चहल्लुम?

  • गरीबों को खाना खिलाना

  • पानी-शरबत बांटना

  • क़ुरान ख्वानी (Qur’an Recitation)

  • दुआ और ज़िक्र

  • शिया समुदाय द्वारा अलम और मातमी जुलूस निकालना

यह दिन केवल ग़म का नहीं बल्कि उस रोशनी का भी प्रतीक है, जो इंसानियत और सच्चाई के लिए लड़ने वालों को रास्ता दिखाती है।

क्यों आज भी प्रासंगिक है करबला की शहादत?

करबला की कहानी सिर्फ धार्मिक नहीं, बल्कि एक वैश्विक संदेश है:

“ज़ुल्म के खिलाफ खड़ा होना ही असली हक़ है।”

इमाम हुसैन की शहादत बताती है कि सच का साथ देने के लिए संख्या नहीं, नीयत की ज़रूरत होती है

चहल्लुम का दिन न सिर्फ एक यादगार दिन है, बल्कि एक रूहानी प्रेरणा भी है। यह हमें सिखाता है कि जब ज़ुल्म बढ़ जाए, तब हुसैनी रास्ता चुनना ही इंसानियत है।

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