
असम के मुख्यमंत्री हिमंत बिस्वा सरमा ने शुक्रवार को साफ किया कि राज्य सरकार ने 2015 से पहले भारत में प्रवेश करने वाले गैर-मुस्लिम अवैध प्रवासियों के मामलों को लेकर कोई “विशेष निर्देश” जारी नहीं किया है।
उन्होंने कहा कि CAA (नागरिकता संशोधन अधिनियम, 2019) पहले से ही ऐसे लोगों को कानूनी सुरक्षा प्रदान करता है, इसलिए किसी नए निर्देश की ज़रूरत नहीं है।
सरमा बोले — कानून है, सुप्रीम कोर्ट तक वैध है
मुख्यमंत्री ने संवाददाता सम्मेलन में कहा:
“यह कानून है, और जब तक सुप्रीम कोर्ट इसे रद्द नहीं करता, यही देश का कानून रहेगा। इसके लिए अलग कैबिनेट फैसले की जरूरत नहीं।”
उन्होंने दो अलग फैसलों का ज़िक्र भी किया जो गोरखा और कोच-राजबोंगशी समुदायों से जुड़े एफटी (Foreign Tribunals) मामलों से संबंधित थे।
तो क्या जिला प्रशासन को कोई निर्देश नहीं मिला?
22 जुलाई को अतिरिक्त मुख्य सचिव अजय तिवारी द्वारा हस्ताक्षरित एक निर्देश में जिला अधिकारियों से कहा गया कि वे:
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2015 से पहले राज्य में आए गैर-मुस्लिम विदेशियों के मामले विदेशी न्यायाधिकरण से वापस लें
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उन्हें CAA के तहत नागरिकता के लिए आवेदन करने को प्रोत्साहित करें
यानी टेक्निकली, केंद्रीय कानून के तहत कार्रवाई हो रही है, न कि कोई राज्य विशेष की नीति।
CAA के तहत कौन सुरक्षित है?
CAA 2019 के अनुसार, जो लोग:
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बांग्लादेश, पाकिस्तान या अफगानिस्तान से आए हैं
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31 दिसंबर 2014 तक भारत में प्रवेश कर चुके हैं
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हिंदू, सिख, ईसाई, जैन, बौद्ध या पारसी हैं
…उन्हें भारत में 5 साल निवास के बाद नागरिकता का हक़ मिल सकता है।
क्या FT अब बेमतलब हो गया?
नहीं। FT यानी Foreign Tribunals अब भी प्रासंगिक हैं, लेकिन:
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जिनका मामला 2015 के बाद का है, उन पर प्रक्रिया जारी रहेगी
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जिनका मामला 2015 से पहले का है और वे गैर-मुस्लिम हैं, उन्हें FT के बजाय CAA के तहत मार्गदर्शन मिल रहा है
राजनीतिक और सामाजिक नजरिया क्या कहता है?
यह विषय असम जैसे राज्य में बेहद संवेदनशील है जहां:
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एक ओर NRC (राष्ट्रीय नागरिक रजिस्टर) का मुद्दा गर्म है
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दूसरी ओर स्थानीय समुदायों में जनसंख्या असंतुलन को लेकर चिंता बनी रहती है
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वहीं, गोरखा व अन्य समुदायों को राहत देने की कोशिशें भी दिख रही हैं
सरकार ने संतुलन साधने के लिए “मामले-दर-मामले” नीति अपनाई है।