
कभी लगता है कि देश WhatsApp यूनिवर्सिटी से चल रहा है, तो कभी ऐसा कि संसद अब इंस्टाग्राम लाइव हो चुकी है। ऐसे में कुछ लोग कह रहे हैं – “देश को चाहिए 10 साल का अनुशासित लोकतंत्र!”
अब सवाल ये है कि ये अनुशासन ‘लोकतांत्रिक अनुशासन’ है या ‘लोकतंत्र पर अनुशासन’? आइए देखते हैं!
जनहित में अनुशासन ज़रूरी है… लेकिन किसका?
देश की समस्याओं की सूची देखें — ट्रैफिक से लेकर ट्विटर तक — हर जगह “आज़ादी” का ऐसा तांडव है कि गवर्नमेंट को ‘नैतिक मोरल पुलिस’ बनकर उतरना पड़ता है। कुछ मानते हैं कि जनता को समझाने से बेहतर है कि उन्हें “डंडे की democracy” दी जाए। अगर सब खुद से नहीं सुधरेंगे, तो सुधार दिया जाएगा!” – अनुशासन समर्थक दल
जनता की चिंता: लोकतंत्र का मतलब वोट के बाद ‘मौन’?
10 साल का अनुशासित लोकतंत्र सुनते ही आम आदमी का दिल धड़कने लगता है, जैसे कोई कह दे – “Netflix बंद करो, सिर्फ दूरदर्शन चलेगा।”
कहीं ये अनुशासन आज़ादी की मौन हत्या तो नहीं?
लोकतंत्र का सर्कस या मिलिट्री स्कूल?
यह प्रस्ताव लोकतंत्र को एक अनुशासित सैनिक स्कूल बनाने की मांग करता है — जहां न कोई बहस, न विरोध, सिर्फ ‘जी सर’।
यानी संसद नहीं, परेड ग्राउंड!
“लोकतंत्र वो नहीं जहाँ सब बोलें, बल्कि वो जहाँ सब ‘ठीक है’ कहें!” – कल्पनाओं का भारत 2035
समाधान या सोशल एक्सपेरिमेंट?
क्या ये विचार एक स्थायी समाधान है या फिर एक राजनीतिक स्टेरॉइड – जो तात्कालिक जोश देता है, लेकिन लॉन्ग टर्म में लोकतंत्र के जिगर पर असर करता है?
अगर आज़ादी पर लगाम लगेगी, तो क्या अगली पीढ़ी ‘स्वतंत्रता संग्राम 2.0’ की तैयारी करेगी?
“अनुशासन अच्छा है, पर डेमोक्रेसी कोई बोर्डिंग स्कूल नहीं!”
लोकतंत्र को अनुशासन चाहिए, लेकिन संविधान के भीतर। नहीं तो जल्द ही ‘लोकतंत्र दिवस’ का नाम बदलकर ‘गवर्नमेंट डे’ रखना पड़ेगा।
सुप्रीम कोर्ट vs हेट स्पीच: सोशल मीडिया पर ‘अभिव्यक्ति’ या ‘अभिशाप’?