लड़ लो भाई! हथियारों से ग्लेशियर तो पिघलेंगे नहीं

आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)
आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)

दुनिया भर में जलवायु परिवर्तन का संकट बढ़ रहा है, तापमान रिकॉर्ड तोड़ रहा है, लेकिन महाशक्तियों को इससे ज़्यादा चिंता इस बात की है कि किसका बॉर्डर कितना बड़ा है। ईरान और इजराइल एक-दूसरे पर मिसाइलें तान चुके हैं, वहीं रूस और यूक्रेन तो जैसे युद्ध के स्थायी किरायेदार बन चुके हैं। लगता है जैसे “ग्लोबल वॉर्मिंग” से ज्यादा जरूरी है “जियो-पॉलिटिकल वार्मिंग”।

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पिघलती बर्फ, लेकिन नीयत नहीं

हिमालय से लेकर आर्कटिक तक बर्फ तेज़ी से पिघल रही है। मगर वैश्विक नेताओं के दिलों की बर्फ अभी भी जमी हुई है – शांति की पहल करने के लिए नहीं, बल्कि अपने रक्षा बजट बढ़ाने के लिए। विज्ञान कहता है कि ग्लेशियरों का पिघलना विनाशकारी होगा, लेकिन राजनेताओं का बयान होता है, “हम किसी भी हाल में पीछे नहीं हटेंगे।”

पेड़ काटो, लेकिन युद्ध ‘प्लांट’ करते रहो

UN ने चेतावनी दी है कि पृथ्वी पर तेजी से घटते जंगल इंसान की जीविका के लिए खतरा हैं, लेकिन शायद ये चेतावनी सुरक्षा परिषद की टेबल तक नहीं पहुंची। वहाँ फिलहाल टैंक की नई डिज़ाइन और मिसाइलों की रेंज पर चर्चा ज्यादा ज़रूरी समझी जाती है। प्लास्टिक की बोतलों पर बैन है, लेकिन हथियारों के एक्सपोर्ट पर नहीं।

हवा में जहरीली गैसें नहीं, अब मिसाइलें उड़ रही हैं

दुनिया के कई देशों में Air Quality Index जानलेवा स्तर पर पहुंच चुका है। लेकिन अब हवा में केवल कार्बन डाइऑक्साइड नहीं, क्रूज़ मिसाइलें भी घुल रही हैं।
जब इंसान को शुद्ध हवा चाहिए, तब उसकी किस्मत में आता है एयर रेड सायरन। क्या आपने कभी देखा है कि किसी देश ने अपने पर्यावरण मंत्रालय को उतना बजट दिया हो जितना डिफेंस मिनिस्ट्री को?

क्लाइमेट फंड के लिए “कोई बजट नहीं”, लेकिन युद्ध के लिए “ओपन चेकबुक”

अफ्रीका, एशिया और दक्षिण अमेरिका के कई देश जलवायु परिवर्तन से बेहाल हैं। लेकिन जब ये देश क्लाइमेट फंड की बात करते हैं, तो अमीर देश कहते हैं:

हम अभी व्यस्त हैं… युद्ध में।”
वहीं, एक युद्ध शुरू हो जाए, तो एक ही रात में अरबों डॉलर मिल जाते हैं – शायद डॉलर भी सोचता होगा, “काश मैं पेड़ होता!”

धरती मां को चाहिए वृक्ष, नेताओं को चाहिए विनाश

अगर इस धरती को वाकई बचाना है, तो युद्ध की भाषा छोड़कर प्रकृति की भाषा बोलनी होगी
बर्फ, बारिश, जंगल, नदियां और समुद्र – ये कोई राजनीतिक हथियार नहीं, बल्कि जीवन के आधार हैं। पर अफसोस, आज उन्हें सबसे कम प्राथमिकता दी जा रही है।

थोड़ा सोचें – क्या यही भविष्य है जिसकी कल्पना की थी?

क्या हम आने वाली पीढ़ियों को एक ऐसा ग्रह देना चाहते हैं जो जलता हुआ हो, पर शस्त्रों से भरा हुआ?
जहां शांति संग्रहालयों में मिले और स्कूल के बच्चों को युद्ध की कहानियां सच के तौर पर पढ़ाई जाएं?

जब धरती सिसक रही है, तो हथियार नहीं, हरियाली की ज़रूरत है

युद्ध से जीत हो सकती है, जीवन नहीं।
जलवायु से हार हो सकती है, लेकिन समाधान भी वहीं से आएगा।”

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