“थैले में ‘बेटे का शव’ और बस का टिकट — यही है सरकारी इलाज!”

संजीव पॉल
संजीव पॉल

झारखंड के पश्चिम सिंहभूम जिले से सामने आई यह घटना भले एक सप्ताह पुरानी हो, लेकिन इसकी गूंज आज भी सरकारी दावों पर करारा तमाचा जड़ रही है।
चाईबासा सदर अस्पताल में इलाज के दौरान चार साल के मासूम की मौत हो गई, लेकिन असली दर्द इसके बाद शुरू हुआ — जब पिता को अपने बेटे का शव थैले में भरकर बस से गांव ले जाना पड़ा

यह सिर्फ एक घटना नहीं, बल्कि सरकारी स्वास्थ्य व्यवस्था की असफलता की चलती-फिरती चार्जशीट है।

70 किलोमीटर की उम्मीद, अस्पताल में टूटा सपना

जानकारी के मुताबिक, नोवामुंडी प्रखंड के बालजोड़ी गांव निवासी डिंबा चतोम्बा अपने 4 वर्षीय बेटे की बिगड़ती हालत को देख उसे करीब 70 किलोमीटर दूर चाईबासा सदर अस्पताल लेकर आए थे। शुक्रवार शाम करीब 4 बजे, इलाज के दौरान बच्चे ने दम तोड़ दिया।

जिस बेटे को बचाने की उम्मीद में पिता यहां पहुंचा था, उसी अस्पताल ने मौत के बाद मुंह मोड़ लिया

एंबुलेंस मांगी, जवाब मिला — सन्नाटा

बेटे की मौत के बाद पिता ने अस्पताल प्रशासन से शव को गांव पहुंचाने के लिए एंबुलेंस देने की गुहार लगाई। घंटों इंतजार, बार-बार मिन्नतें — लेकिन नतीजा शून्य। न एंबुलेंस, न सामाजिक कार्यकर्ता, न संवेदना बस एक टूटता हुआ पिता।

जब थैला ही बना ‘कफन’

स्थानीय लोगों के अनुसार, डिंबा चतोम्बा की आर्थिक हालत इतनी खराब थी कि निजी एंबुलेंस का किराया देना असंभव था।
घर लौटने तक के पैसे भी नहीं थे।

आखिरकार, सिस्टम से हारकर पिता ने— बेटे के शव को एक थैले में रखा, बस स्टैंड तक पैदल गया और बस से गांव रवाना हुआ।

बस में बैठे यात्रियों के मुताबिक, वह पिता इस कदर टूट चुका था कि आंसू भी जवाब दे चुके थे

अस्पताल का बयान: “मुझे जानकारी नहीं”

इतनी गंभीर घटना के बावजूद अस्पताल प्रबंधन की प्रतिक्रिया और भी चौंकाने वाली रही। जब चाईबासा सदर अस्पताल के उपाधीक्षक डॉ. शिवचरण हांसदा से सवाल किया गया, तो उन्होंने कहा— “फिलहाल मुझे इस घटना की जानकारी नहीं है। संबंधित कर्मचारियों से रिपोर्ट ली जा रही है।”

यानी —बेटा मर गया, पिता टूट गया, लेकिन सिस्टम अभी भी ‘फाइल ढूंढ’ रहा है।

एक हफ्ते बाद भी सवाल वही

घटना को भले एक सप्ताह बीत चुका हो, लेकिन सवाल आज भी जिंदा हैं — गरीब के लिए एंबुलेंस क्यों नहीं? सरकारी अस्पताल में मौत के बाद जिम्मेदारी कौन लेगा? क्या संवेदना भी अब बजट पर निर्भर है?

“सरकारी अस्पताल में इलाज मुफ्त है, लेकिन इंसानियत अब ‘आउट ऑफ स्टॉक’ है।”

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