
दिल्ली के 7, लोक कल्याण मार्ग पर इस हफ़्ते एक खास मिठास पहुंची — बांग्लादेश की अंतरिम सरकार के मुखिया मोहम्मद यूनुस की ओर से भेजे गए 1,000 किलो आम। एक तरफ ये उपहार ‘शुभकामना’ जैसा दिखता है, लेकिन जानकारों के मुताबिक, यह आम नहीं, ‘आम डिप्लोमेसी’ है — कूटनीतिक वार्ताओं की मिठास में लिपटी एक रणनीतिक चाल।
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आम के बहाने रिश्तों में मिठास?
पहले भी बांग्लादेश की पूर्व प्रधानमंत्री शेख हसीना हर साल गर्मियों में पीएम मोदी को राजशाही और हरिभंगा जैसी खास किस्म के आम भेजा करती थीं। बांग्लादेशी राजदूत तक कह चुके हैं, “मोदी जी शाकाहारी हैं, पद्मा हिलसा नहीं भेज सकते, पर आम हर कोई खा सकता है।”
अब वही परंपरा अंतरिम सरकार में लौटाई गई है, जब भारत-बांग्लादेश संबंध कड़वाहट के दौर से गुजर रहे हैं — शायद ‘आमों’ से कूटनीतिक damage control की कोशिश है।
क्यों आज की तारीख में बांग्लादेश को भारत की ज़रूरत है?
भू-राजनीतिक विश्लेषकों के मुताबिक, यूनुस की सरकार इस समय अमेरिका के टैरिफ दबाव, म्यांमार की सीमा पर तनाव और मध्यपूर्व में अस्थिरता से जूझ रही है। दिल्ली से मधुर संबंध इस स्थिति में संजीवनी साबित हो सकते हैं। इसलिए आम की टोकरियाँ, शायद दबी जबान में यही कह रही हैं — “हमें बातचीत चाहिए।”
नेहरू से लेकर मोदी तक: आम कूटनीति का पुराना इतिहास
मैंगो डिप्लोमेसी कोई नया ट्रेंड नहीं है:
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1955: जवाहरलाल नेहरू ने चीन के पीएम चाऊ एनलाई को दशहरी और लंगड़ा आमों के पौधे गिफ्ट किए
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1981: पाकिस्तान के ज़िया-उल-हक़ ने इंदिरा गांधी को भेजे ‘अनवर रटौल’
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2006: जॉर्ज बुश के आम-प्रेम के कारण हटाया गया अमेरिका में भारतीय आमों पर बैन
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2015: नवाज़ शरीफ़ की टोकरी आई, लेकिन 26/11 जैसी घटनाओं ने मिठास फिर से कड़वाहट में बदल दी
आम की संस्कृति, राजनीति और राष्ट्रवाद
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आम सिर्फ फल नहीं, राजनयिक गिफ्टिंग टूल हैं
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भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश सभी अपने आमों को पहचान का हिस्सा मानते हैं
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फिलीपींस, चीन, रूस तक में भेजे गए आमों से भारत की कूटनीति का स्वाद मिला
भारत बनाम पाकिस्तान बनाम बांग्लादेश: आम युद्ध का भूगोल
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भारत: ~1,200 किस्में, जैसे अल्फांसो, दशहरी, लंगड़ा
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पाकिस्तान: ~400 किस्में, खासकर सिंदूरी, चौसा, अनवर रटौल — लंबी शेल्फ लाइफ़
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बांग्लादेश: राजशाही और हरिभंगा जैसे आम, जो अब “डिप्लोमैटिक कूरियर” के ज़रिए घूमते हैं
आम की बॉक्सिंग से डिप्लोमैसी तक: निष्कर्ष
इस सीजन में जहां देश महंगाई, टैक्स और टैरिफ की गर्मी में तप रहे हैं — वहीं आमों की ये डिप्लोमेसी मीठा झोंका बन सकती है। मगर सवाल उठता है:
क्या इससे केवल मुस्कानें मिलेंगी या वाकई दक्षिण एशिया में रणनीतिक बर्फ पिघलेगी?
राजनीति और कूटनीति के इस मीठे संवाद को “आम आदमी” कितना समझेगा, यह आने वाला वक्त बताएगा।