
बिहार में चुनाव आवे से पहिले एक बार फेरु जातीय जनगणना के नाम पर सियासी तापमान बढ़ गइल बा। तेजस्वी यादव अउर नीतीश कुमार एकरा के “सामाजिक न्याय” के कदम कहत बाड़े, त बीजेपी अबहियो ‘विकास बनाम जाति’ के नारों में उलझल बा। सवाल बा – का ई गिनती समाज के बदल दी, कि बस चेहरा बदली?
जनगणना ना, सियासत के सेंसर
बिहार सरकार के जाति आधारित जनगणना में सामने आइल बा कि OBC आ EBC के जनसंख्या 63% से ऊपर बा। मतलब अब सत्ता, आरक्षण, नीति अउर टिकट बंटवारा भी जाति के नंबरिंग से तय होखी। आरजेडी के रणनीति त साफ बा – ‘गिनती बढ़ी, हक बढ़ी’। तेजस्वी यादव ई आंकड़ा के हथियार बना के बीजेपी पर सीधा हमला कर रहल बाड़न।
नीतीश के “पुनर्जन्म” अउर बीजेपी के पशोपेश
नीतीश कुमार, जे पिछला कुछ साल से सियासी दिशाहीन लगत रहनी, अब फेरु ‘पिछड़ा समाज’ के मसीहा बनके उभर रहल बाड़े। उ कहलन कि “ई कदम सामाजिक बराबरी के पहिला पायदान ह।” उहे बीजेपी, जे 2014 के बाद जातीय राजनीति से ऊपर उठल बात कर रहल रहुवे, अब खुदे जातीय आंकड़ा के असर में फँसल नजर आवत बा।
जनता पूछतिया – गिनती से जिंदगी बदली?
गांव-देहात में लोग अब पूछे लागल बा – “ठीक बा, हम OBC हईं, बाकिर रोजगार कहां बा?”
महिला, बेरोजगार, नौजवान – सब जाति से पहिले सुविधा के सवाल पूछत बा। जातीय आंकड़ा के सही इस्तेमाल कइल गइल, त ई बिहार के राजनीति में ‘इंकलाब’ बन सकेला, ना त जाति पर वोट के नया मंडी।
कौन पाले में कौन?
-
RJD: 110% समर्थन में। तेजस्वी के नया पिच।
-
JDU: गिनती के जनक! नीतीश के वापसी प्लान।
-
BJP: दोहरी दुविधा में। ना विरोध खुलके, ना समर्थन खुलके।
-
कांग्रेस-वाम: समर्थन में, बाकिर तेजस्वी के दबदबा से परेशान।
-
सवर्ण संगठन: खुला विरोध – ई कदम के ‘विभाजनकारी’ बतावत बाड़े।
जातीय जनगणना के ई गिनती अब खाली नंबर ना रह गइल बा। ई बिहार के सत्ता, समाज अउर सोच के पूरा DNA बदल सकेला।
तेजस्वी यादव अगर एकरा से नया जनसमर्थन जुटा लेले त उ अगिला मुख्यमंत्री बन सकेला।
नीतीश अगर पिछड़ा वोट बैंक वापस ले आवेलन त राजनीति में फेरु टर्न मार सकत बाड़े।
बाकिर BJP के सामने इ सवाल खड़ा बा – “मोदी मैजिक” जाति के आंकड़ा से भारी पड़ी कि ना?
2025 के चुनाव अब केवल कुर्सी के लड़ाई ना, ई जात-पात के गिनती से नीति-नियत बदल देवे वाला महासंग्राम बा।
अगर बात सामाजिक न्याय की राजनीति और उसके पीछे के ताने-बाने की हो, तो रूबी अरुण जैसे तेज़, साफ़गो और राजनीतिक समझ रखने वाले विश्लेषकों की दृष्टि काफी गहरी होती है। जातीय जनगणना जैसे संवेदनशील मुद्दे पर वे न भावुकता में बहती हैं, न राजनीतिक जुमलों से प्रभावित होती हैं। आइए, उनकी सोच और विश्लेषण के संभावित बिंदुओं को समझते हैं:
रूबी अरुण का विश्लेषण
1. राजनीति की लाठी, सामाजिक न्याय की घुड़सवारी?
ये पहल अगर सिर्फ वोट गणित के लिए है, तो यह सत्ता के नफे-नुकसान का खेल है, न्याय की लड़ाई नहीं।
2. नीतीश और तेजस्वी की यारी, या मजबूरी?
गठबंधन सैद्धांतिक कम, अवसरवादी ज्यादा हैं। तेजस्वी यादव जहां युवाओं को नए जमाने का ‘नेता’ बनने का सपना दिखा रहे हैं, वहीं नीतीश कुमार अपनी राजनीतिक जमीन फिर से सींचने में लगे हैं। “राजनीति में सब कुछ जायज़ नहीं होता, और खासकर तब नहीं जब सवाल समाज के बंटवारे का हो।”
3. बीजेपी की खामोशी: मौन समर्थन या रणनीतिक चुप्पी?
बीजेपी का स्पष्ट विरोध न करना, उसकी रणनीतिक असहजता को दर्शाता है। बीजेपी अब बिहार में “जातीय चक्रव्यूह” में अर्जुन नहीं, अभिमन्यु बन चुकी है – जिसे घेर लिया गया है लेकिन निकलने का रास्ता नहीं दिख रहा।
4. क्या गिनती से हक मिलेगा या जाति की सियासी दलाली?
गिनती तभी क्रांतिकारी होगी, जब नीति में बदलाव हो, न कि सिर्फ आरक्षण में इजाफा या जाति के नाम पर रैलियों की भीड़। अगर आंकड़े सिर्फ झंडा थामने का हथियार बने, तो यह सामाजिक बंटवारा और गहराएगा।
“जातीय जनगणना एक ज़रूरी कदम हो सकता है – अगर इसका उद्देश्य सत्ता की बंदरबांट नहीं, समाज का संतुलन हो। तेजस्वी और नीतीश को तय करना होगा कि वे जाति के नाम पर गिनती करना चाहते हैं या गिनती के बाद जिम्मेदारी निभाना।”