भगवान बिरसा मुंडा – धरती आबा का ‘उलगुलान’ आज भी ज़िंदा है

अजमल शाह
अजमल शाह

भगवान बिरसा मुंडा सिर्फ एक स्वतंत्रता सेनानी नहीं, बल्कि एक विचार, एक आवाज़ और एक आन्दोलन थे। उन्होंने 19वीं सदी के अंत में ब्रिटिश हुकूमत और सामाजिक अत्याचारों के खिलाफ आदिवासी समाज को झकझोरा और उसे उसके अधिकारों के लिए खड़ा किया। आज, 9 जून 2025 को उनकी 125वीं पुण्यतिथि पर देशभर में उन्हें श्रद्धांजलि अर्पित की जा रही है।

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उलगुलान: जब जंगल से उठी बगावत की गर्जना

बिरसा मुंडा ने सिर्फ बंदूक या बगावत से नहीं, अपने विचारों और संगठन कौशल से ब्रिटिश सत्ता को झुका दिया। ‘उलगुलान’ यानी महाविद्रोह, उनके नेतृत्व में हुआ एक ऐतिहासिक आंदोलन था जिसने छोटानागपुर टेनेंसी एक्ट जैसे बदलावों को जन्म दिया। ये सिर्फ कानून नहीं, आदिवासी अधिकारों की जीत थी।

धर्म, समाज और प्रकृति: एक आदर्श जीवनदर्शन

बिरसा मुंडा ने ‘बिरसाइत धर्म’ की स्थापना की — जो अंधविश्वास, शोषण और भेदभाव के खिलाफ था। वे एकेश्वरवाद के पक्षधर थे और आदिवासी समाज को संगठित करने के साथ ही सामाजिक सुधारों पर भी ज़ोर देते रहे। उनका प्रसिद्ध नारा:

“अबुआ राज सेतेर जना, महारानी राज टुंडू जना”
(हमारा राज स्थापित हो, महारानी का राज समाप्त हो)

आज भी ज़िंदा हैं विचार

बिरसा मुंडा के विचार आज भी जल, जंगल और जमीन की लड़ाई लड़ने वाले हर आदिवासी युवा में ज़िंदा हैं। सामाजिक समानता, पर्यावरण संरक्षण और आत्म-सम्मान के मुद्दों पर वे आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं जितने 125 साल पहले थे।

 प्रेरणात्मक कविता: “धरती के बेटे”

धरती की गोद से जो जन्मा, आग बनकर वो बोला था,

जंगल-पहाड़ों की भाषा में, हक़ और इन्साफ़ बोला था।

न झुका कभी, न रुका कहीं, बस हक़ की बात की उसने,
धरती आबा कहलाए वो, जब आदिवासी जागे उसमें।

बिरसा ना था बस नाम कोई, वो ज्वाला था उम्मीदों की,
जिसने औपनिवेशिक रातों में, जलती लौ नई दी लोगों की।

125 साल बाद भी भगवान बिरसा मुंडा सिर्फ इतिहास नहीं, आज की सामाजिक और पर्यावरणीय चेतना का आदर्श स्तंभ हैं। उन्होंने जो बीज बोया था, वह अब वटवृक्ष बन चुका है, जिसकी छांव में करोड़ों आदिवासी आज भी अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहे हैं। उनका जीवन, उनका संघर्ष और उनका बलिदान — आने वाली पीढ़ियों के लिए एक जीवित मशाल है।

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