कलेक्टर नहीं बने, तो क्या ज़िंदा रहना भी ज़रूरी नहीं?” —नंबरों की राजनीति

आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)
आशीष शर्मा (ऋषि भारद्वाज)

आप कौन-से कलेक्टर बन गए?” – ये लाइन साधारण नहीं, समाज की सड़ी हुई सोच का आईना है। महाराष्ट्र के सांगली ज़िले में जब 12वीं की छात्रा साधना भोसले ने अपने पिता को उनके अधूरे सपनों की याद दिलाई, तो जवाब में उन्हें तर्क नहीं मिला, बल्कि थप्पड़ और घातक हिंसा मिली।
बेटी की मौत के बाद जो रह गया, वो था: मेडिकल की तैयारी, अधूरे सपने, और समाज की ‘डॉक्टर या इंजीनियर नहीं बने तो फ़ेल हो’ वाली मानसिकता।

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‘सपनों’ का कर्ज़ और बच्चों का दम घुटता वर्तमान

धोंडीराम भोसले जैसे हज़ारों माता-पिता हैं, जिनकी खुद की नाकामियां अब बच्चों के “सफल करियर” में इनवेस्टमेंट बन चुकी हैं। “हमने फीस भरी है, अब तुम्हारा रिजल्ट हमारा रिटर्न है” – ये भावनात्मक नहीं, फाइनेंशियल प्रेशर है।

जब पढ़ाई, प्रतियोगिता नहीं – पागलपन बन जाती है

हर साल लाखों बच्चे नीट जैसी परीक्षाओं में बैठते हैं, लेकिन अगर रिज़ल्ट खराब आ जाए, तो बच्चों को लगता है जैसे जीवन में Ctrl+Z का कोई ऑप्शन ही नहीं। और कोटा जैसी जगहें तो एक्जाम प्रेशर की प्रयोगशालाएं बन चुकी हैं, जहां फेलियर = फ्रस्ट्रेशन = आत्महत्या।

‘हमने खाया नमक, तुम बनो डॉक्टर’ – पेरेंटिंग या प्रेशर?

माता-पिता अपने अधूरे सपनों को बच्चों पर थोपते हैं। लेकिन बच्चों की रुचि? वो सिर्फ़ रिपोर्ट कार्ड में मरी पड़ी रहती है।

माता-पिता: बचपन से कोचिंग लगवाई, अब तो AIIMS चाहिए। बच्चा (मन में): “पापा, मुझे बस थोड़ा सुकून चाहिए।

पढ़ाई का तनाव – दबाव नहीं, जानलेवा मानसिक रोग

NEET-JEE सिर्फ़ एक्जाम नहीं, एक ज़हरीली चूहा-दौड़ बन चुकी है। बच्चे दबाव में सुसाइड तक कर लेते हैं, और पैरेंट्स को तब समझ आता है कि उनके ‘सपने’ दरअसल बच्चों के लिए दुःस्वप्न बन चुके थे।

NCRB के अनुसार, अकेले महाराष्ट्र में 2022 में 1764 छात्रों ने आत्महत्या की। यह आंकड़ा शिक्षा प्रणाली नहीं, ‘इमोशनल जालिम करियर पेरेंटिंग’ पर सवाल खड़े करता है।

एक मौत, लेकिन सबके लिए एक चेतावनी

साधना भोसले की मौत, एक छात्रा की नहीं, हमारी सोच की हत्या है। वो लड़की जिसने सच कहा, उसे चुप करा दिया गया – हमेशा के लिए।सवाल ये नहीं कि नीट की तैयारी कैसे करें। सवाल ये है कि बच्चों को जीने की इजाज़त कैसे दें?

डॉक्टर नहीं बने तो क्या, अच्छा इंसान तो बनने दो!

बच्चों से संवाद कीजिए, सिर्फ़ सिलेबस की बातें मत कीजिए।

उनकी रुचियों का सम्मान कीजिए, उन्हें Excel की तरह मत चलाइए।

असफलता को अपराध नहीं, अनुभव समझाइए।

करियर की बात करें, लेकिन ज़िंदगी की कीमत पर नहीं।

मै दो बच्चों का पिता हूँ, इस खबर से दहल गया हूँ। मैं सभी से यही कहना चाहता हूं कि किसी सवाल का गलत जवाब ज़िंदगी का अंत नहीं होता। किसी टेस्ट में कम अंक आना, किसी बच्चे का “नाकाम” होना नहीं होता — पर अगर उस एक नाकामी पर हम उसका विश्वास तोड़ दें, तो वो ज़रूर हार जाता है।

साधना भोसले अब कोई सपना नहीं देख पाएगी। उसने अपने मन की बात कहने की हिम्मत दिखाई — और उसी की सज़ा उसे अपनी जान देकर चुकानी पड़ी। हर साल हम कहते हैं, “अब बहुत हो गया।” फिर किसी और घर से ऐसी ही एक ख़बर आ जाती है।

कब समझेंगे हम कि बच्चों को ‘बनाना’ नहीं, बस समझना होता है?
कब मानेंगे कि बच्चा अगर डॉक्टर नहीं बन पाया, तो वो फेल नहीं — शायद वो लेखक, चित्रकार, संगीतकार, शिक्षक या बस एक खुश इंसान बन सकता है?

फिर एक बार कहूँ तो, सपनों का बोझ इतना भारी न बनाइए, कि वो बच्चा ही बिखर जाए। अपने बच्चे को नंबर नहीं, उसके जज़्बात में देखिए। डॉक्टर न सही, अगर वो मुस्कुरा रहा है – तो वो सफल है। “बच्चे कैरियर नहीं, किरायेदार नहीं और इन्वेस्टमेंट स्कीम भी नहीं होते।”
कभी उनसे पूछिए – तुम क्या बनना चाहते हो?
शायद जवाब डॉक्टर या इंजीनियर नहीं, खुश रहना हो।

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