हीर राँझा (1970) रेट्रो रिव्यू: शायरी में डूबी मोहब्बत की सबसे दर्दनाक फिल्म

साक्षी चतुर्वेदी
साक्षी चतुर्वेदी

1970 में चेतन आनंद ने जो किया, उसे आज की पीढ़ी “Cinematic Audacity” कहेगी। पूरी फिल्म शायरी में बोलती है! नहीं, मतलब सच में — हर किरदार, हर डायलॉग, हर झगड़ा तक, सबकुछ तुकबंदी में। और इस प्रयोग को नाकाम नहीं, मास्टरपीस कहा गया।

अखिलेश केदारनाथ बना बैठे, शंकराचार्य बन बैठे क्या-अब काबा भी बनवायेंगे ?

राजकुमार: एक्टर नहीं, चलता-फिरता उर्दू शेर

अगर आपको लगता है कि आजकल के हीरो स्टाइलिश हैं, तो ज़रा राजकुमार को देख लीजिए – नज़रों से तलवार चलाते हैं और जुबान से इश्क। उनके डायलॉग नहीं, इश्क़ी तीर होते हैं। उदाहरण देखिए:

“तूने जो फूल चुना वो मुरझाया निकला… मैंने जो कांटा उठाया, वो राँझा निकला!”

अब बताइए, ऐसा कौन आज बोलता है? आजकल तो “I love you, baby!” बोलकर काम चला लेते हैं!

हीर: प्यार में शक्तिवान, घर में त्रस्तनंदा

हीर के किरदार में प्रियंका चोपड़ा के सासू माँ जितना ड्रामा और माधुबाला जितना सेंसुअल ग्रेस था। लेकिन त्रासदी ये कि उसे परिवार वालों ने ही धोखा दिया — वो भी इस्लामाबाद की कोई साज़िश नहीं थी, पंजाब के देसी चाचा-ताऊ ही असली विलन थे।

मदन मोहन का म्यूज़िक: दर्द के साउंडट्रैक की डिग्री

“ये दुनिया, ये महफ़िल…” जैसे गीत आज भी ब्रेकअप वालों के नेशनल एंथम हैं। मदन मोहन का संगीत और कैफ़ी आज़मी की लिखी शायरी – ऐसा कॉम्बिनेशन अब ऑडियो स्पॉटिफाई में भी नहीं मिलता।

क्या आज की पीढ़ी झेल पाएगी ये शुद्ध मोहब्बत?

साफ बात: आज अगर कोई लड़का लड़की को शायरी में प्रपोज करे तो लड़की उसका ब्लॉक बटन दबा दे। लेकिन यही 70 के दशक में होता तो शादी पक्की! इस फिल्म को देखकर आज के जेन Z को लगेगा कि ये नाटक का सिनेमाई रूपांतरण है, लेकिन असल में यही रूहानी सिनेमा है।

हीर राँझा – मोहब्बत का ताजमहल, जिसमें हीरो नहीं कवि मरते हैं!

“हीर राँझा” सिर्फ एक फिल्म नहीं, इश्क का उपनिषद है। यहां प्यार में गोली नहीं चलती, अल्फाज़ लगते हैं। और कोई भी लव स्टोरी जो शायरी में खत्म हो — वो हमारी आज की Tinder Generation के लिए Not Safe For Understanding™ है।

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