बकरीद से पहले बयानबाज़ी तेज, कुर्बानी पर तकरार: बकरा काटो या कद्दू?

साक्षी चतुर्वेदी
साक्षी चतुर्वेदी

त्योहार आने से पहले भारत में कुछ भी सामान्य नहीं होता, खासकर जब त्योहार का नाम बकरीद हो और कुर्बानी शब्द साथ में जुड़ा हो।

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दो मौलाना, दो विचार: एक बोले बकरा ही परंपरा, दूसरा बोले त्याग ही असली कुर्बानी

बकरीद पर कुर्बानी को लेकर देश के दो मुस्लिम धर्मगुरुओं के बयान आमने-सामने हैं। मौलाना शहाबुद्दीन रजवी बरेलवी बोले – “बकरीद 1450 साल पुरानी परंपरा है, और उसी तरह बकरा काटा जाएगा। किसी के कहने से नहीं रुकेगी कुर्बानी।”, वहीं मौलाना सैफ अब्बास नकवी ने संयम का संदेश देते हुए कहा – “ईद-ए-कुर्बान का मकसद सिर्फ जानवर काटना नहीं, बल्कि सेवा, त्याग और साफ-सफाई है। खुले में कुर्बानी न करें।”

अब समझ नहीं आता – बकरा काटा जाए या विचार?

साफ-सफाई पर भी सियासत: सड़कों पर नहीं काटिए, वरना वायरल हो जाएंगे

लखनऊ नगर निगम ने भी मोर्चा संभाल लिया है – साफ-सफाई का हवाला देकर बाहर कुर्बानी न करने की अपील की गई है।

प्रशासन कहता है – “कुर्बानी अंदर करें, ताकि तस्वीर बाहर न आए!”

कद्दू काटो, बकरा छोड़ो – विधायक जी का समाधान

लोनी विधायक नन्दकिशोर गुर्जर बोले –
“हमने तो पहले बलि दी, अब नारियल फोड़ा, फिर कद्दू काटा – अब आप भी ईको-फ्रेंडली बनिए।”
उन्होंने सुझाव दिया कि “बकरीद पर केक का बकरा बना लो और मोमबत्तियां जला दो।”

शायद अगली बार दीवाली पर LED की जगह मोमबत्ती, और होली में गुलाल की जगह गुलाबजल छिड़काव हो!

 बकरा बोले – मुझे त्याग का पर्व क्यों बना दिया टारगेट?

बेचारा बकरा तो समझ ही नहीं पाया कि उसका मामला धर्म से राजनीति तक, किचन से संविधान तक कैसे पहुंच गया।

अब तो लगता है अगली बार बकरा प्रेस कॉन्फ्रेंस करके बोलेगा –
“त्याग करिए, पर मुझे नहीं।”

त्योहार मनाइए, बकरा न बनाइए (किसी विचारधारा का)!

बकरीद हो या दीवाली – त्योहारों पर बयानबाज़ी से ज़्यादा ज़रूरी है सौहार्द, और कुर्बानी से पहले ज़रूरी है समझदारी की पेशकश।

आखिरकार, त्याग का मतलब खुद को बदलना है, बकरा नहीं!

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