
जैसे ही नवरात्रि का पावन पर्व शुरू हुआ, गाजियाबाद से लोनी के विधायक नंदकिशोर गुर्जर ने तय किया कि अब मीट की दुकानों से निकलता धुआं नहीं, धमाकेदार बयान निकलेगा। उनका कहना है – “मांग करने की कोई ज़रूरत नहीं, पुलिस-प्रशासन को खुद पता होना चाहिए कि जनता की भावना कौन सी दिशा में बह रही है!”
वाह! ऐसी चेतावनी तो मौसम विभाग भी नहीं देता।
मीट दिखा, तो मीटिंग पक्की – और सस्पेंशन भी!
विधायक जी का मानना है कि अगर नवरात्रि के दौरान कोई मीट की दुकान खुली मिली, तो उसकी ‘खुली हुई किस्मत’ पर तुरंत ब्रेक लगना चाहिए – और साथ ही जिम्मेदार अफसरों की नौकरी पर भी। “अगर कोई अधिकारी मीट की दुकान खुली रहने दे, तो उसे सस्पेंड किया जाना चाहिए।”
– विधायक नंदकिशोर गुर्जर
इसमें राजनीति की क्या ज़रूरत है? सीधे HR पॉलिसी लागू कर दो, त्योहार का उल्लंघन = नौकरी समाप्त।
आस्था बनाम आजीविका: सालाना क्लासिक विवाद
हर साल की तरह, इस बार भी वही पुराना डायलॉग – एक तरफ धार्मिक परंपरा। दूसरी तरफ रोज़गार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता लेकिन गुर्जर जी के लिए मामला सीधा है —“यह कोई डिबेट नहीं, परंपरा है।”
“व्रत रखने वालों की भावना टूटे तो बवाल होगा। जो भावुक नहीं हुए, उन्हें भावनात्मक बनाया जाएगा।”
पुलिस से लेकर कप्तान तक सबकी क्लास
विधायक जी को अफसरों पर खास भरोसा नहीं — इसलिए चौकी इंचार्ज से लेकर कप्तान तक सबको अलर्ट कर दिया गया है। कहीं किसी ने गलती से भी मीट बिकता देख लिया, तो समझो मीट के साथ-साथ ‘मीटिंग’ और ‘मेमो’ भी तैयार!

शुद्धता का पाठ और अधर में अधिकार
विधायक जी के मुताबिक व्रतधारी जनता “शुद्धता का पालन करती है” — और अगर उनकी आंखों के सामने तंदूर का धुआं दिख जाए तो “व्रत खंडित हो सकता है, और गुस्सा भड़क सकता है।”
मीट की दुकान बंद, भावना ऑन
यह मुद्दा फिर वही सवाल खड़ा करता है- धार्मिक परंपराओं का सम्मान ज़रूरी है, पर क्या उनकी रक्षा केवल दुकानों को बंद करके ही हो सकती है?
गुर्जर जी के बयान ने एक बार फिर बताया कि “जहां आस्था है, वहां कार्रवाई भी होनी चाहिए – और वो भी तुरत फुरत।”
भावना जरूरी या भोजना?
क्या वाकई नवरात्रि में मीट की दुकान बंद करना समाज की एकता का संकेत है या किसी एक वर्ग के रोज़गार पर अघोषित सेंसरशिप?
सोचिएगा ज़रूर, क्योंकि भावना बड़ी चीज़ होती है… और कभी-कभी सीट भी दिला देती है।
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