13 December 2001: संसद का शोर गोलियों में बदला | Attack Story

गौरव त्रिपाठी
गौरव त्रिपाठी

साल था 2001, तारीख 13 दिसंबर। भारत की संसद—जहां देश के भविष्य पर फैसले होते हैं—उस दिन बहस और हंगामे से गूंज रही थी। महिला आरक्षण बिल पर चर्चा चल रही थी। सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने थे।
लेकिन किसी ने नहीं सोचा था कि संसद का यह शोर कुछ ही मिनटों में AK-47 की गोलियों में बदल जाएगा।

जब आतंक संसद के दरवाजे तक पहुंच गया

अचानक खबर आई— 5 आतंकी संसद परिसर में घुस चुके हैं। हाथों में AK-47, आंखों में नफरत और इरादों में भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था को झकझोरने की साजिश। तभी जानकारी मिली कि तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी, नेता प्रतिपक्ष सोनिया गांधी कुछ देर पहले ही सदन से निकल चुके थे। सदन के अंदर उस वक्त गृह मंत्री लाल कृष्ण आडवाणी भाषण दे रहे थे।

अंदर अफरा-तफरी, बाहर गोलियों की गूंज

संसद के अंदर और बाहर हड़कंप मच गया। देश के सबसे सुरक्षित इलाके लुटियंस दिल्ली में स्थित संसद पर हमला— यह कल्पना से भी परे था। सांसद, वरिष्ठ नेता और बड़ी संख्या में मौजूद पत्रकार।

सब कुछ समझने की कोशिश कर ही रहे थे कि चारों तरफ से गोलियों की आवाज़ आने लगी।

45 मिनट जिसने देश को झकझोर दिया

करीब 45 मिनट तक संसद परिसर में फायरिंग होती रही। यह सिर्फ गोलियों की आवाज़ नहीं थी— यह भारत की आत्मा को चुनौती थी। दिल्ली पुलिस और सुरक्षा बलों ने हालात संभालने की कोशिश की। सभी नेताओं और पत्रकारों को सदन के अंदर ही रहने के निर्देश दिए गए। पूरे संसद परिसर को सील कर दिया गया।

जिस संसद में कानून बनते हैं, उसी संसद में उस दिन कानून की परीक्षा हो रही थी।

क्यों याद रखा जाता है 13 दिसंबर?

13 दिसंबर 2001 सिर्फ एक तारीख नहीं— यह वो दिन है जिसने भारत को याद दिलाया कि लोकतंत्र जितना मजबूत दिखता है, उतना ही संवेदनशील भी होता है। इस हमले के बाद संसद की सुरक्षा व्यवस्था बदली। आतंकवाद के खिलाफ भारत का रुख और सख्त हुआ और देश एकजुट होकर खड़ा हुआ।

13 दिसंबर 2001 का संसद हमला भारत के इतिहास का सबसे काला अध्याय है। यह हमला न सिर्फ नेताओं पर था, बल्कि भारतीय लोकतंत्र पर सीधा वार था। लेकिन उसी दिन देश ने यह भी दिखाया कि गोलियां लोकतंत्र को डरा सकती हैं, झुका नहीं सकतीं।

“सेल्फी को लेकर अमेरिका भड़का, इंडिया बोला—Bro, Calm Down!”

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